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________________ छोटी सी जिन्दगी बहुत जल्दी बिताकर.. जीवन समाप्त कर चले जाते हैं और रुपए के सिक्के हजारों वर्षों तक पडे रहते हैं। आखिर मरने के बाद भी कभी कभी, कहीं न कहीं. कोई न कोई तो उपयोग करेंगे ही। इसमें तो संदेह ही नहीं है । वस्तु कहाँ पडी रहती है ? उसका उपभोग करनेवाले सैंकडों बैठे हैं। एक युवति के पीछे भी हजारों लोग अपनी वृत्ति बिगाडते हैं । बस, यह संसार इसी तरह चलता रहता है। सुख-भोगों का त्याग___मोह बुद्धि रखकर अपनी सुखैषणा की वृत्ति से जीव वस्तु और व्यक्ति में सुख भोगने की बालिश चेष्टा करता है । वस्तुओं तथा व्यक्तियों के प्रति जो मोहदशा-रागभाव जीव की वृत्ति में पड़े हैं वे ही जीव को खींचते हैं। उनमें मोहित करते हैं। मोहभाव-रागभाव ही भोगने के लिए आकर्षित करता है । मन को खींचता है । जीव के पास अपना आध्यात्मिक बल नहीं है, मोहवश आत्मज्ञान दशा की जागति नहीं है इसी कारण से जीव खींचा जाता है । सामान्य जीवों की बात कहाँ करें? बडे बडे जो भगवान बननेवाले... जो भगवान बन बैठे हैं वे भी खींचे गए । त्याग भाव उनमें भी नहीं आया और वे भी सुख-भोगों को भोगने के पीछे आसक्त बन गये। परिणाम स्वरूप वैभवी-ऐश्वर्यशाली और विलासी जीवन उन्होंने बनाया और अपनी भोगेच्छा को पराकाष्टा पर पहुँचाने की कोशिष की । धनाढ्य और श्रीमंताई का दिखावा काफी ज्यादा किया। अपनी अमाप ऊँची संपत्ति से भी दुनिया की आँखों में धूल डालकर अपने को लोगों द्वारा पूजाया । प्रतिष्ठा- यश-कीर्ति प्राप्त की और वाह वाही लूटने के पीछे खूब लट्ठ बने । लेकिन अफसोस कि वे इसी में रह गए। सबकुछ भोग भी न सके । अतृप्त भोगेच्छा में ही कालकवलित हो गए। दुनिया के सामने अपने ऐश्वर्य और वैभवी-विलासी जीवन का आदर्श छोड गए। आखिर दुनियाँ के लोगों की जब आँख खुली तब समझ में आया लेकिन “अब पछताए क्या होत है जब चिडिया चुन गई खेत”। जैन तीर्थंकर जिनेश्वर भगवान आज दिन तक अनन्त हुए । अन्तिम चौबीसी जो अभी हुई है उनमें हुए चौबीस तीर्थंकरों को भी देखने से यह स्पष्ट होता है कि वे सब सर्वोत्कृष्ट त्याग की मूर्ति थे। उनके पास गृहस्थाश्रमी जीवन में अमाप-असीम और अनेक गुना था। फिर भी अन्तरात्मा में ज्ञान इतना प्रचुर मात्रा में था की उन्हें कभी भी.. . भोगने की अतृप्तता लगी ही नहीं । वैभव-ऐश्वर्य और विलासिता को सर्वथा तिलांजली देकर चरम सीमा के त्याग को जीवन में अपनाया । यौवनकाल में जब भोग-सुख भोगने ७७८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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