SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का कीडा बनकर अनन्त जन्म बिताता रहा। इतने अनन्त भोगों को भोगकर न तो कोई तृप्ति आई और न ही कोई विरक्ति-उदासीनता आई। फिर भी भोगता ही गया। वमन को चाटना गत अनन्त जन्मों में जीव के पास भोगने के पदार्थ तथा सुख सामग्रियाँ अनन्त थी। एक एक जन्म भी काफी बड़े-बड़े कई वर्षों के हुए। उन जन्मों में जीव ने अनन्त गुने पदार्थों का भोग-उपभोग किया है । और पाँचों इन्द्रियों के विषयों का भोग-उपभोग जीव ने अनन्त बार किया है। संसार में मात्र दो ही पदार्थ है । एक जड और दूसरा है चेतन । जड पदार्थ वस्तु के रूप में जीव के भोगने के काम आती रही। जबकि दूसरा चेतन तत्त्व किसी व्यक्ति के रूप में उपभोग हेतु भी सामने आया। एक स्त्री व्यक्ति को उपभोग की साधन सामग्री मानकर अपनी वासना के खेल को खेलने का खिलौना मात्र मानकर कामेच्छा-भोगेच्छा की तृप्ति को पूर्ण करने के लिए आयुष्य भर भुगतता ही रहा। चक्रवर्ती के जन्म में ६४ हजार स्त्रियों का उपभोग एक व्यक्ति चक्रवर्ती करता ही रहा। उसमें भी पद्मिनि जैसी स्त्रियों का उपयोग असंख्य बार कर चुकने के पश्चात भी आज दिन तक जीव को तृप्ति संतोष-शान्ति कहाँ हुई है? आज भी तृष्णा आसक्ति इतनी ज्यादा भरी पडी है कि.. शायद भूखे शेर की तरह किसी भी भोग्य-उपभोग्य पदार्थों को देखते ही टूट पडता है। थोडा और गौर से गहराई में जाकर सोचिए... भूतकाल के जन्मों में हमारे पास असंख्य पदार्थ थे । भोगते-भोगते पदार्थ कहाँ समाप्त होते हैं ? पदार्थ तो जड है । निर्जीव है। कोई निर्जीव पदार्थ अपनी तरफ से सुख नहीं देता है । परन्तु जीव उसमें सुख की बुद्धि मानकर उस पदार्थ को भोगता हुआ सुख प्राप्त करने की इच्छा रखता है । अतः सुख वस्तु में नहीं जीव की वृत्ति में है । पदार्थ भोगे या न भी भोगे, वस्तु बची या समाप्त हुई कोई ख्याल नहीं है । लेकिन जीव की मृत्यु हो गई । कर्मानुसार दूसरी गति में गया । वही भोगेच्छा वापिस साथ आई। पुनः भोगने लगा। क्या आपको ऐसा नहीं लगता है कि.. . एक बार भोगे हुए पदार्थ जो हमने छोड दिये-अधूरे छोडकर मर गए आज उन पदार्थों को पुनः भोगना यह वमन करके पुनः चाटने बराबर नहीं है । ऐसा झूठा पुनः भोगना यह कहाँ तक उचित है? ___हम मर जाते हैं । मृत्यु पाकर चले जाते हैं । परन्तु धन-संपत्ति-मकान आदि तो यहीं पडे रहते हैं। कई चीजें वर्षों तक भी नष्ट नहीं होती हैं । हम ६०-७०-८० वर्ष की आत्मशक्तिका प्रगटीकरण ७७७
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy