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________________ जगत में तीनों काल में आज दिन तक क्या किसी को तृप्ति - संतोष हुआ है ? छः खण्ड का मालिक चक्रवर्ती, ६४ हजार स्त्रियों का उपभोग करता है, छः खण्ड की सुख-सम्पत्ति वैभव-भोग-विलास साधन-सामग्रियों आदि का उपभोग कर लेने के पश्चात् भी, और अनेक तरीकों से अनेक बार भी उपभोग कर लेने के बाद भी तृप्ति - संतोष कहाँ हुआ है ? समुद्र जैसे पानी से भरता नहीं है, अग्नि जैसे घी - तेल से भी तृप्त नहीं होती, वैसे ही स्त्री पुरुष कामक्रीडाओं से सन्तुष्ट नहीं होते हैं, पशु आहार से तृप्त नहीं होते, स्वर्ग के देवता भी सुखों को वैभव - ऐश्वर्य को असंख्य वर्षों तक भोगकर भी तृप्त नहीं होते हैं । वही स्थिति मनुष्य की भी है । एक तरफ सीमित - परिमित आयुष्य है, उसमें भी निरूपक्रमता नहीं अपितु सोपक्रमता है । ऐसा सोपक्रम आयुष्य कब तूट जाय, कब समाप्त हो जाय इसका कोई ख्याल नहीं है, और संसार के सुख भोग जितने भी भोगने हैं वे अनन्त - असीम - अमाप - अगणित हैं । सुख - भोग भोगने के लिए मोह की उपस्थिति नितान्त आवश्यक है। बिना मोहवृत्ति के एक भी भोग भोगा नहीं जाता है । स्त्री को भोगने में भी यदि उदासीनता आ जाय तो स्त्री भी नहीं भोगी जा सकती। और प्रिय मनोज्ञ खाद्यपदार्थ खाने में भी यदि उदासीनता - उपेक्षा आ जाय तो वह भी खाना संभव नहीं है । वस्त्रादि परिधान करने में यदि चित्त की व्यग्रता आ जाय तो वह भी निरर्थक लगते हैं । और गहने आभूषण पहनने आदि के विषय में उपभोगवृत्ति तब शान्त पड जाती है जब अभाव हो जाय। इस तरह पाँचों इन्द्रियों के २३ विषय जो भोगने की अत्यन्त उत्कंठा होती है वे सब एक मात्र मोह की उपस्थिति में ही भोगे जा सकते हैं। उसके सिवाय संभव नहीं है । I यह जीव अनन्त भवों के संसार चक्र में परिभ्रमण करते करते अनन्त बार राजा-महाराजा बना है । शेठ - साहुकार बना है । अरे ! वासुदेव - प्रतिवासुदेव भी बना है । और चक्रवर्ती तथा देवलोक का अधिपति देवेन्द्र भी बना है और इन सब प्रकार के जन्मों में अनेक बार काफी लम्बे बडे-बडे आयुष्य भी पाए हैं। सेंकडों वर्षों तक के लम्बे आयुष्य काल में प्रबल पुण्य के उदय से सुख-सम्पत्ति, स्त्री- पुत्र परिवार, धन- माल, खाद्य, पेय सामग्री, भोगोपभोग की सामग्री, ऐश्वर्य भोगविलास की सुख सम्पत्ति राज्यादि की सत्ता - पद-प्रतिष्ठा आदि के मान सन्मान की सामग्रियाँ आदि विपुल प्रमाण में प्राप्त , और उसे भोगने में भी कोई कमी नहीं रखी। इस तरह यह जीव मोह - ममता - वासना ७७६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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