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अध्याय १२
आत्मशक्ति का प्रगटीकरण
सर्वथा निर्मोही—विमोही वीतरागी सर्वज्ञ प्रभु श्री महावीर स्वामी के चरणारविन्द में अनन्तानन्त वन्दनावली पूर्वक ...
बलादसौ मोहरिपुर्जनानां ज्ञानं विवेकं च निराकरोति । महाभिभूतं हि जगद्विनष्टं तत्त्वावबोधादपयाति मोहः ॥
प. पू. अध्यात्मविद् चिरन्तनाचार्यजी म. स्वरचित “ हृदय प्रदीप " महान ग्रन्थ में मोह का अनोखा वर्णन करते हुए काफी महत्त्वपूर्ण सूचक संकेत करते हुए लिखते हैं कि यह मोहरूपी शस्त्र जबरदस्ती मनुष्यों के ज्ञान व विवेक का नाश करता है । और सचमुच मोह से पराभव प्राप्त यह सारा जगत् ही नाश की गर्त में गिरा है। ऐसा भयंकर दुर्दान्त मोह एकमात्र तत्त्वों के विशिष्ट बोध से नष्ट होता है ।
दुर्जेय मोह कर्म
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संसार में बाह्य सिद्धियाँ पाना आदि सब कुछ साधना आसान है परन्तु एक मात्र संपूर्ण मोहनीय कर्म को जीतकर विजय पाना और सर्वथा निर्मोही बनना अत्यन्त दुष्कर है । संसार में जेल का भी बन्धन बडा नहीं है परन्तु मोह का बंधन जेल न होते हुए भी जेल जैसी ही हालत बनाकर जीव को परेशान करता है । बंदिस्त बनाकर भवभ्रमण कराता है। जेल की काल मर्यादा है । परन्तु मोह की कोई काल अवधि ही नहीं है। कितने भव भटकाता रहे इसका कोई ठिकाना ही नहीं है । अनन्त भव इस संसार में बीत चुके हैं परन्तु अभी भी हमारी मोह निद्रा कम भी नहीं हुई वैसी की वैसी उतनी ही बनी हुई है। अतः अत्यन्त दुर्जेय है ।
मोहपाश में बंधे हुए जीव निरन्तर पराभव अनुभव करते हैं । आत्मा मोहनीय कर्म के सामने हार अनुभवती हुई अनन्त जन्मों से, अनन्त काल से चली आ रही है। लेकिन आज दिन तक भी उसे मोह से न तो तृप्ति हुई है, और न ही मोह से विरक्ति पैदा हुई है । मोह की तृप्ति अर्थात् असीम - अमाप - अपरिमित मोह का उपभोग कर लेने के बाद भी
आत्मशक्ति का प्रगटीकरण
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