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करता ही रहा है । और वह मन्त्र है- “अहं - मम" । मैं और मेरा " । यह मोहनीय कर्म
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मन्त्र है। संसार में अनन्त ही जीव- अनन्तकाल से अनन्तबार इस मोहमन्त्र का जाप सदा काल अखण्डरूप से करते ही आए हैं। न तो किसी ने बताया है। और न ही किसी ने सिखाया है । परन्तु अनादि मोहसिद्ध यह मन्त्र सदाकाल ही चलता आ रहा है। बस, मैं और मेरा। इसके सिवाय दूसरी बात ही नहीं । इस मोह के मन्त्र में डूबा हुआ जीव इसमें से बाहर कब और कैसे निकले ? सचमुच, इस मोहमन्त्र ने आत्मा के ज्ञान दृष्टि के दरवाजे ही बन्द कर दिये हैं । अतः जीव किंकर्तव्यमूढ बन गया है। विवेक दृष्टि खो बैठा है । रात- दिन - प्रतिक्षण.. प्रतिपल जीव की यही विचारणा रही है। और अजपाजप की तरह निरंतर चल रहा है ।
शराबी से भी ज्यादा खतरनाक मोह का नशा होता है। हम सदा अपने मोहनीय की पुष्टि संतुष्टि के लिए ही सबकुछ करते रहते हैं। परिणाम स्वरूप मोह की जड़ें और गहरी जाकर ज्यादा मजबूत होती जाती हैं। मोहपाश का बन्धन ज्यादा तीव्र गाढ बनता है। सचमुच, मोह की माया का कोई पार नहीं है। मछली जिस तरह खाने के मोह में जाल में फसती है ठीक उसी तरह यह जीव भी मोह की जाल में सदा फसता ही जाता है। हे साधक ! तुझे तो मोह विजेता बनना है। मोहाधीन - मोहवश नहीं, मोह अपनी आत्मा का सबसे बड़ा भयंकर शत्रु है । नुकसानकारक है ।
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मोहनीय कर्म ने अपनी लम्बी-चौडी विशाल सेना में .. अनेक सैनिक रखे हैं । रागरूप सेना भी मोह के पास है और द्वेषरूप सेना भी मोह के पास है । कब किसका उपयोग करना है और कब किसका ? कभी राग के सैनिकों को... माया लोभ, हास्य, रति, राग – कामादि को आगे करता है । क्योंकि ये सब अनुकूल है । रागादि अनुकूल मोह सुखकारक है । सुखदाता है । अतः अच्छे मीठे लगते हैं । द्वेष प्रतिकूल है। लेकिन फिर भी मोह ने अपनी एक दूसरी द्वेष की सेना भी काफी लम्बी रखी है । द्वेष में क्रोध, मान, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा मिथ्यात्वादि की बडी सेना रखी है। इस तरह २८ प्रकृतियों के बने हुए इस मोह ने अपनी विशाल सेना के रूप में अपने हाथ-पैरों - शस्त्रादि का विस्तार करके ... बडा भयंकर संसार खड़ा कर दिया है। आत्मा को एक तरफ अन्दर बैठा दी है उसको उसका कोई काम करने ही नहीं दे रहा है। उसके किसी गुण को भी प्रगट होने नहीं देता है । आत्मा का गला ऐसा घोंट दिया है कि उसके ज्ञान की आवाज को उठने ही नहीं देता है। आवाज बाहर आने ही नहीं देता है । अनन्त शक्ति की मालिक आत्मा किंकर्तव्यमूढ होकर मोहनीय कर्म के आधीन होकर न करने का करती रहती है ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा