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________________ सोते रहनेवाले प्रमादि का ज्ञान भी सोता ही रहता है । प्रमादि का ज्ञान शंकित एवं स्खलित हो जाता है । जो अप्रमत्तभाव से जागृत रहता है उसका ज्ञान सदा स्थिर एवं परिचित-समुपस्थित रहता है। सच ही कहा गया है शास्त्रों में- “पमाय मूलो बंधो भवति"- नि पू. ६६८९. प्रमाद मूलक ही कर्म का बंध है । अर्थात् प्रमादग्रस्त जीव ही ज्यादा कर्म बांधता है । कर्म से लिप्त होता है। इस तरह छठे प्रमाद गुणस्थान, तथा सातवें अप्रमत्त गुणस्थान का वर्णन प्रमाद-अप्रमाद की विषयता के अनुरूप किया है। प्रमाद का स्थान साधना के क्षेत्र में कैसा है और अप्रमाद का स्थान साधना के क्षेत्र में कैसा है ? इसका स्पष्ट ख्याल साधक को आ सकता है । गुणस्थानों की इस स्कूल में साधक को सदा आगे-आगे का रास्ता ही विशेष दिखाया जाता है । आत्मा के गुणों के विकास से ही साधक की आगे प्रगति हो सकती है । आध्यात्मिक विकास हो सकता है । यद्यपि छठे गुणस्थान पर साधु प्रमत्त है लेकिन छटे से पिछले नीचे के गुणस्थान तक की जो अवस्था थी उससे तो काफी अच्छी ऊँची कक्षा तुलना में छठे गुणस्थानवर्ती आत्मा की है। हाँ, आगे के सातवें अप्रमत्त की तुलना में जरूर निम्न श्रेणी की कक्षा है । इसके लिए ऊपर चढाने के लिए...आगे बढाने के लिए आगे-आगे की श्रेष्ठ कक्षा का वर्णन किया गया है । हमेशा आदर्श ऊँची कक्षा - का सर्वोत्तम श्रेष्ठ ही होना चाहिए। ___ जो साधक छठे गुणस्थानक पर चढ चुका है इससे उसको और भी आगे बढाना है अतः ऊँची कक्षा का आदर्श सामने रखा है । साधु की साधुता ऊँची कक्षा की है । सर्वश्रेष्ठ है । सर्वोत्तम है । इसलिए छट्टे गुणस्थान पर पधारे हुए साधक साधु का तथा आगे सातवें गुणस्थान पर पहुँचने के लिए उस भूमिका का सर्वोत्तम स्वरूप दिखाया है। दोनों गुणस्थानों तथा दोनों गुणस्थानवर्ती साधकों का वर्णन यहाँ किया है । यह पढने से स्पष्ट स्वरूप ख्याल में आ सकता है। कर्म की दृष्टि से बंध-उदय-उदीरणा-सत्ता आदि का वर्णन आगे के गुणस्थानों के क्वेिचन के अवसर पर किया जाएगा। सभी आत्माएं अप्रमत्त साधक बनें यही शुभ भावना। साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन । ७७३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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