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________________ - सूत्रकृतांग आगम में आसक्ति को प्रमाद और अनासक्ति को अप्रमाद कहा है। आसक्तिवाला प्रमादि जीव बाल कहलाता है और ठीक इससे विपरीत अनासक्तिवाला जीव अप्रमादि-पंडित कहलाता है। अतः प्रमाद की बाल्यावस्था-बाल चेष्टा में से अप्रमत्तभाव की पंडित की कक्षा में आना आगे का विकास है। __“अप्पमत्तो पमत्तेसु, सुत्तेसु बहु जागरो”– धम्मपद में कहते हैं कि प्रमादियों के साथ रहने का अवसर आने पर अप्रमत्त रहने का कहा है और सुषुप्त-अज्ञानियों के साथ रहना पडे तो वहाँ विशेष रूप से जागृत सावधान रहना चाहिए। “भारंडपक्खी इव अप्पमत्ते" भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमत्त रहना चाहिए। पक्षियों में यह एक विशेष पक्षी है। इसमें एक गुण है वह- अप्रमत्तता का। अतः उसके एक गुण को भी साध्य बनाकर सीखने के लिए महापुरुष उपमा के लिए उसका दृष्टान्त देते हैं। किसी का भी उत्तम गुण ग्राह्य होता है। प्रमाद को कर्म का आश्रव कहा है और अप्रमाद को संवर धर्म कहा है। अप्रमत्त भाव के संवर धर्म का फल कर्मक्षय रूप निर्जरा है। • सव्वओपमत्तस्स भयं । सव्वओअपमत्तस्स णत्थि भयं ॥अ.१/३/४/२-प्रमादि को सब तरफ से भय रहता है । अप्रमत्त जीव को किसी ओर से भी कोई भय नहीं रहता . सुत्तेसु या वि पडिबुद्धजीवी, णो वीससे पंडिए आसुपण्णे। घोरा मुहूत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खीव चरेऽपमत्ते ।। उत्त. ४/६ ।। - आशुप्रज्ञ विवेकवान पंडित पुरुष सुषुप्नों के बीच भी जागृत रहे । प्रमादि न बने । काल अत्यधिक भयंकर है । शरीर अशक्त है इसलिए भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त बनकर विचरे। ____जंकल्लं कायव्वं णरेण अज्जेव तं वरं काउं। मच्चू अकषुणहिअओ, न हुदीसइ आवयंतो वि ।। बृ. भा. ४६७४ ।। जो करने योग्य कर्तव्य कल करना है, वह आज ही कर लेना अच्छा है । मृत्यु अत्यन्त निर्दय है । अर्थात् मौत किसी पर दया नहीं करती है । वह कब आकर दबोच ले, मालूम नहीं। क्योंकि मृत्यु आती हुई दिखाई नहीं देती है। सुवति सुवतस्स सुयं, संकियं खलियं भवे पमत्तस्स। जागरमाणस्स सुयं थिर परिचितमप्पमत्तस्स ।। बृ. भा. ३३८४ ।। ७७२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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