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असंख्य समय बीत जाते हैं । इतनी तीव्र गति होती है आँख फरकने की कि जिसमें समय का ख्याल भी नहीं आता है और उसमें असंख्य समय बीत जाते हैं । इतने असंख्य समयों में से एक समय मात्र का भी प्रमाद न करने का प्रभु उपदेश दे रहे हैं । अप्रमत्त भाव लाने के लिए कह रहे हैं । देखा जाय तो बात भी सत्य है । इतने ज्यादा तीव्र मोहनीय कर्म के उदय में इतना ज्यादा चंचल-चपल यह मन जो एक समय भी स्थिर नहीं रह सकता है ऐसी स्थिति में एक समय मात्र भी प्रमाद नहीं करना, अर्थात् प्रत्येक समय-समय अप्रमत्त बनकर रहना अत्यन्त असंभव-अशक्यसा लगता है । आत्मिक कक्षा के उस स्तर की बात है । जिस स्तर पर प्रतिक्षण-क्षणप्रति पल-पल, प्रति समय आत्मा “अप्रमत्त” रह सके तो कितनी अमाप कर्म निर्जरा होगी। प्रमाद कर्म बंधानेवाला है तो अप्रमत्तभाव कर्मों की ढेर सारी निर्जरा करानेवाला है । अप्रमत्त साधक ही इतनी अद्भुत निर्जरा करके आगे. बढ सकता है । अन्यथा संभव ही नहीं है।'
अप्रमत्त भाव
यह जीव संसार के पापकर्म के कार्यों में, कर्म के उदय काल में, कर्म बांधने के समय तो कई बार अप्रमत्त बन जाता है । जैसे धर्म ध्यानादि ध्यान है वैसे ही आर्त-रौद्र ध्यान भी ध्यान ही है । चित्त की एकाग्रता ध्यान की अवस्था है । यह एकाग्रता अप्रमत्तावस्था है । पाप कर्म करने में भी जीव अप्रमत्त स्थिर बनता है । और कोई पाप कर्म से बचने में भी अप्रमत्त बनता है । संसार में सब प्रकार के जीव हैं । पाप कर्म करने में अप्रमत्त बनने वाला जीव उस अप्रमत्तता में हजार गुने ज्यादा कर्म बांधेगा। इसी तरह पाप कर्मों का क्षय करने में निर्जरा करने में लगा साधक हजार गुनी ज्यादा निर्जरा कर्मक्षय करेगा। दोनों तरह है। दोनों दिशा है । यदि कोई जमीन की गहराई में नीचे उतरना चाहे तो वह कई माइलों तक जा सकता है। या फिर आकाश में ऊँची उडान भरना चाहे तो आकाश में भी काफी ऊपर कई माइलों तक जा सकता है । ऊपर और नीचे की दोनों दिशाएं हैं । जिसको जहाँ जाना हो जा सकता है । इसी तरह प्रमाद और अप्रमाद की दोनों दिशाएं हैं । कर्म बंध और क्षय करने की दोनों दिशाएं हैं। जिसको जहाँ जाना हो वहाँ जीव जा सकता है। कोई रोकनेवाला नहीं है । जो जैसा करेगा वह वैसा भरेगा । क्रियानुरूप फल है। साधक को अप्रमत्त बनना ही श्रेयस्कर है
पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं। तब्मावादेसओ वावि, बालं पंडियमेव वा ।। सूत्र० १-८-३ ।।
. साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन
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