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आज भी बिना किसी शस्त्रादि साधनों के आज भी हाथों से ही हो रहा है । अरे ! १० वर्ष की उम्र के बाल साधु से लेकर ८० वर्ष की उम्र तक के वृद्ध साधु एवं स्त्री साध्वी सभी केशलुंचन प्रतिवर्ष २ बार करते-कराते ही हैं। जैन साधु-साध्वीजीयों के वेश में आजदिन तक कोई फैशन नहीं आई । क्योंकि सीये हुए वस्त्र ही नहीं पहनने है अतः फैशन को अवकाश ही नहीं रहा । रात्री भोजन का, पानी आदि का सर्वथा त्याग जो रहा है वह भी अखण्ड परंपरा में आज भी चल रहा है। इस तरह जैन संस्कृति के ऊँचे आदर्शों को अखण्ड रूप से परंपरा के रूप में टिकाने का, सुरक्षित रखने का श्रेय जैन साधु-साध्वीयों श्रावक-श्राविकाओं को है।
तथा वर्तमान में ऐसे विशुद्ध आचारों की शृंखला जो जीवंत है इससे भविष्य में भी इसकी अखण्ड परंपरा चलने की संभावना काफी ऊँची है। हाँ, इतना जरूर है कि... संख्या की दृष्टि से प्रमाण में जरूर कम रहेगा फिर भी अस्तित्व का लोप नहीं होगा। कलियुग कलिकाल के पाँचवे आरे के २१००० वर्ष में से ढाई हजार वर्ष तो व्यतीत हो चुके हैं। अभी १८५०० वर्ष और शेष बचे हैं। इस काल में भी यह संस्कृति जीवंत रहेगी। विश्व में एक ऊँचा-अनोखा-अनूठा आदर्श सदा बना रहेगा। प्रमत्त-अप्रमत्त साधु
मोक्षमार्ग पर अग्रसर
ऐसे जैन साधु दो गुणस्थानों अप्रमत्त साधु
पर रहते हैं । १) छट्टे प्रमत्त सातवाँ गुणस्थान
गुणस्थानवर्ती प्रमादी साधु प्रमत्त साधु
तथा २) सातवें अप्रमत्त छट्ठा गुणस्थान
गुणस्थानवर्ती अप्रमत्तजागृत साधु । जिस तरह घडी का लोलक चलता हैं, कभी ऊपर चढता है फिर नीचे उतरता है। ठीक इसी तरह साधु कभी कभी अध्यवसायों की विशुद्धि के आधार पर अप्रमत्त कक्षा में चढ जाता है । लेकिन अप्रमत्त कक्षा बहुत ज्यादा सुदीर्घ काल तक रहती नहीं है । अनादि कालीन प्रमादग्रस्तता के संस्कार बड़े भारी रहते हैं। पूर्वकाल में बंधे हुए कर्मों का जोर बडा भारी रहता है । आखिर पूर्व कर्मों के उदय के बीच ही साधु बना है, साधुता का पालन कर रहा है । पूर्वकर्मों के उदय के साथ ही जी रहा है। वर्तमान की यह साधता उसने प्रबल पुरुषार्थ के बल पर प्राप्त की है। इसलिए आज वह जीव... विशेष रूप से
साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन
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