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________________ अतः उनकी संस्थापित इस संस्कृति में भोग ऐश्वर्य विलासिता आदि का नाम निशान तक नहीं आया, एक मात्र त्याग-तप ही आया। __दूसरी तरह इस जैन संस्कृति को कर्म की खीटि पर बांधकर टिंगाई गई है । अतः कर्मप्रधान जैन धर्म में कर्मक्षय एवं कर्म से बचने का ही लक्ष प्रधान रूप से रहा है । जगत के अन्य धर्मों की संस्कृतियाँ ईश्वरप्रधान रही हैं। वहाँ ईश्वर ही सब कुछ कर्ता-हर्ता-संहर्ता-सर्जनहार आदि के रूप में माना गया है। अतः कर्म की सर्वथा गौणता करके ईश्वर को ही प्राधान्यता दी गई है। ठीक इसके विपरीत जैन संस्कृति की तप-त्याग प्रधान संस्कृति का मुख्य कर्मप्रधानता के कारण है । जैन धर्म ने सारी बागडोर जीवात्मा के हाथ में ही दे दी है। ईश्वर के हाथ में कोई सत्ता ही नहीं रखी । अतः ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-हर्ता-संहर्ता आदि किसी भी स्वरूप में न मानकर उपास्य-आराध्य तत्त्व के रूप में ही माना गया है। कर्म से बचने के लिए कर्मक्षयार्थ-निर्जरा-संवर प्रधान सिद्धान्त की धारा का आधार होने के कारण तथा मोक्षकलक्षी होने के कारण आध्यात्मिक संस्कृति है । जगत् की किसी भी संस्कृति की तुलना में जैन संस्कृति वास्तविक स्वरूप में जितनी आध्यात्मिक है उतनी और कोई दूसरी संस्कृति शायद ही मिलेगी। अतः आत्मार्थी मोक्षार्थी होने के कारण जैन संस्कृति में तप-त्याग का आदर्श काफी ऊँचा है । - सनातन काल के हजारों-लाखों वर्षों से इस श्रमण संस्कृति को परंपरा के प्रवाह में अखण्ड रूप से प्रवाहित करने का श्रेय उत्कृष्ट कक्षा के श्रमणों, साधुओं और श्रावकों को है। हजारों वर्षों तक सर्वथा विकृतियाँ न आने देते हुए इस संस्कृति को जीवन्त रखने में अखंडित रखने में जैन साधु तथा श्रावकों का काफी ऊँचा योगदान रहा है । आज भी है। मूलगुणों में विकृति न आने का कारण उनकी ऊँची आचारसंहिता है । त्याग-तप की प्राधान्यता है । भोगप्रधानता में सेंकड विकल्प है । जबकि त्याग प्रधानता में विकल्पों को अवकाश नहीं है । वहाँ संकल्प ही बलवान होता है । ऊँचे आदर्शभूत सिद्धान्तों के कारण, तथा उनके विशुद्ध आचरण के कारण जैन संस्कृति की परंपरा आज भी अखण्ड रूप से चल रही है । इतनी प्राचीन और इतने ज्यादा लम्बे सुदीर्घ काल तक चलनेवाली यह विश्व की एक अनोखी संस्कृति है । इसपर किसी की छाया तक नहीं है। इसी कारण उपवासदि तप भगवान आदिनाथ प्रथम तीर्थंकर ने तथा भगवान महावीर स्वामी ने जैसा जिस तरह का किया था, ठीक वैसा ही उपवासआज हजारों-लाखों वर्षों के बाद भी हो रहा है । उपवास में आहारादि की कोई विकृति अभी तक नहीं घुसी है। इसी तरह तीर्थंकर एवं गणधर भगवंतों की तरह के पादविहार आज भी है । केशलुंचन ७६६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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