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इस तरह त्याग एवं तपश्चर्या के क्षेत्र में जैन साधु का अजोड जीवन है । ऐसा उत्कृष्टतम त्यागी तपस्वी जीवन अन्य किसी संप्रदाय के साधु-संन्यासी का है ही नहीं। वर्तमान विज्ञान के जेट युग में भी जैन साधु का जीवन अत्यन्त ऊँचे आदर्श पर है। इस विषय में बलिहारी है परमात्मा की, जिन्होंने उतनी ऊँची कक्षा की आचार संहिता बनाई है। यहाँ तो मात्र स्थूल दृष्टि से ऊपर-ऊपर का वर्णन किया है। परन्तु और गहराई में जाकर सूक्ष्म स्वरूप एवं आंतरिक जीवन की विशेषताएं लिखने में तो स्वतंत्र ग्रन्थ बन सकता है । वैसे “धर्मसंग्रह" नामक ग्रन्थ में काफी अच्छा वर्णन मिलता है । इस प्रकार के अनेक ग्रन्थ है जिनमें अनोखा अद्भुत वर्णन मिलता है। परन्तु जैन साधु का जीवन मात्र शास्त्रों में वर्णनात्मक ही है ऐसा भी नहीं है । शास्त्रानुसारी जीवन्त मूर्तिरूप जैन साधु का आदर्श जीवन इस भीषण कलियुग में भी दर्शनीय है। सुदीर्घ जीवन्त संस्कृति
विश्व में अनेक संस्कृतियां पनपी और काल के गर्त में विलीन भी हो गई । प्राचीनतम संस्कृतियों में बिना किसी विकृतियों के अखण्ड रूप से जीवन्त रहने वाली यदि कोई संस्कृति हो तो वह एक मात्र श्रमण संस्कृति है। आर्यावर्त भारत देश में वैदिक एवं श्रमण ये दो संस्कृतियाँ सनातन काल से अस्तित्व में है । वैदिक संस्कृति के प्रमुख अनुयायी ब्राह्मणादि हैं। जबकि श्रमण संस्कृति के सूत्रधार जैन एवं बौद्ध दोनों गिने जाते हैं । बौद्ध संस्कृति जितनी स्वदेश में पली, इसकी अपेक्षा ज्यादा विदेशों की धरती पर पलने का अवसर मिला । देश-क्षेत्र-काल-भावादि की असर प्रत्येक संस्कृति पर पडती ही रही है। इसी काल की थपेडें खाती हुई बौद्ध एवं वैदिक संस्कृतियों में आसमान-जमीन का परिवर्तन आ चुका है । अपने मौलिक स्वरूप को संभालने में भी वे संस्कृतियाँ लडखडाती रही।
जैन श्रमण संस्कृति के आद्यप्रणेता तीर्थंकर भगवान रहे हैं । स्वयं संसार के सर्वथा त्यागी विरक्त एवं आत्मार्थी रहे । अतः ऐसे तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा प्ररूपित श्रमण संस्कृति में तप-त्याग की ऊँचाई काफी ऊँची रही। क्योंकि वे स्वयं भोगप्रधान वृत्तिवाले नहीं थे। जिस जिस धर्म के प्रणेता भगवान ही भोगप्रधान जीवन व्यतीत करनेवाले रहे उनकी प्ररूपणावाले धर्म में तप-त्याग की छाया नाममात्र भी नहीं रही। अतः वे भोगप्रधान संस्कृतियाँ रही । जबकि जैन संस्कृति के पुरस्कर्ता चौवीसों तीर्थंकर परमात्मा ही उत्कृष्ट कक्षा का त्याग-तप प्रधान जीवन जीनेवाले थे। उनमें भोगेच्छा अंशमात्र भी नहीं रही।
साधना का साधक- आदर्श साधुजीवन
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