________________
का दोष लगेगा । अतः आजीवनपर्यन्त उपयोग सर्वथा निषिद्ध कर दिया गया है। जबकि जैनेतर संन्यासियों मौलवियों पोप और पादरियों आदि के जीवन में इस विषय की कल्पना तक नहीं की गई है । बौद्ध भिक्षुओं की आचार संहिता में भी इसकी कल्पना तक नहीं है ।
I
जैन साधुओं के लिए पशु-पक्षियों का स्पर्श उपयोग - सवारी आदि सब कुछ सर्वथा वर्ज्य है । शंकराचार्यों अदि के लिए तो पशुओं की सवारी आदि शोभा मानी जाती है। जैन साधु के सिवाय जगत के सभी संन्यासी आदि के लिए पशु-पक्षी अस्पृश्य नहीं है । उनकी सवारी आदि का उपयोग भी वर्ज्य नहीं है। जैन साधु यान - वाहनादि का उपयोग भी सर्वथा वर्ज्य रखकर आजीवन पर्यन्त पैदल विहार ही करते हैं। ऐसा उनका आचार धर्म बनाया गया है वह एक मात्र अहिंसा - जीवदया - प्राणिरक्षा की दृष्टि से ही है। जबकि जैनेतर संन्यासियों आदि के जीवन में इसका रत्तीभर विचार मात्र भी नहीं है ।
ख्रिस्ती पोप - पादरियों तथा इस्लामी मौलवियों आदि के जीवन में एकेन्द्रिय जीव - पानी - अग्नि- वनस्पति आदि के जीवों की रक्षा का तो सवाल ही नहीं है। अरे, वे तो मांसाहारी हैं । अण्डे - मुर्गी - मछली - मांसादि के भोजन का भक्षण तो उनके जीवन में रोज का है । अतः सोचिए, जैन साधु का जीवन और आचार संहिता उनकी अपेक्षा हजारों गुनी ऊँची क्षितिज पर है। जैन साधु के शिखर की ऊँचाई को हासिल करने में हजारों जन्म शायद उन्हें लग सकते हैं। जो जैनसाधु आजीवन पर्यन्त सर्वथा रात्रिभोजन के त्यागी होते हैं । सूर्यास्त हो जाने के बाद... दूसरे दिन के सूर्योदय के पहले – बीच के काल में आहार तो क्या पानी तक नहीं लेते हैं । कितनी भी बिमारी हो या कैसी भी स्थिति हो लेकिन आहार - औषधि तथा पानी - दूध आदि किसी भी पदार्थ का मृत्यु के संकट तक सर्वथा त्याग ही होता है ।
-
आजीवन पर्यन्त नंगे पैर - पैदल चलकर समस्त हिन्दुस्तान के कोने-कोने में परिभ्रमण करना शायद अब जैन साधु के सिवाय जगत् के किसी भी धर्म-संप्रदाय के साधु में है ही नहीं । सर्वथा पादचारी - पैदलविहारी जैन साधु का जीवन सचमुच हिमालय के एवरेस्ट के शिखर पर है। इतना ही नहीं .... महाभिनिष्क्रमण के पश्चात् आजीवन पर्यन्त साधु जीवन में अपने सिर दाढी मूंछ के बालों को अपने ही हाथों से खींचकर निकाल देने रूप ऐसी केशलुंचन (लोच) की क्रिया प्रति वर्ष करनेवाले जैन साधु के सिवाय कोई दिखाई भी नहीं देते हैं । शायद किसी के लिए सुनकर भी आश्चर्य हो परन्तु जैन साधु के जीवन के आचार की यह विशेषता सदाकालीन है ।
७६४
आध्यात्मिक विकास यात्रा