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जितनी हिंसा का भी त्याग न कर सके वह साधु विरति के क्षेत्र में श्रावक से भी नीचे गिर जाएगा।
जैन साधु की सूक्ष्मतम अहिंसा की तुलना में अन्य जैनेतर साधुओं की इतनी ज्यादा सूक्ष्मतम अहिंसा की साधना दृष्टिगोचर नहीं होती है । जैन गृहस्थों को भी नदी-तालाब स्नान का निषेध अहिंसा की दृष्टि से किया गया है। जबकि जैनेतर संन्यासियों के लिए तो नदीस्नान, तालाबस्नान आदि को ज्यादा पुण्यकारी बताकर और ज्यादा प्रवृत्ति को वेग दिया गया है। पानी में असंख्य जीव हैं। आलु-प्याजादि की साधारण-वनस्पति में अनन्त जीवों का अस्तित्व बताया है । जिसे जैन श्रावक भी त्याज्य समझकर त्याग करता है। एक मात्र ज्यादा जीवों की हिंसा से बचने के हेत से ही ऐसा करता है। परन्त जैनेतर संन्यासियों के लिए तो इतना भी वर्ण्य नहीं है । अनन्त जीवों की सत्ता के अस्तित्व की बात ही उन्होंने उनके धर्म में नहीं रखी है । अतः जो सिद्धान्त में ही नहीं है वह आचार में कहाँ से आएगी? अग्नि में जीवों का अस्तित्व मानकर उसका स्पर्शमात्र भी जैन साधु सर्वथा नहीं करते हैं । इसी तरह कच्चे शीत जल का स्पर्श भी आयुष्य भर नहीं करते हैं। पंखा-वातानुकूलादि वायुकाय की हिंसा विराधनादि जैन साधु आजीवन नहीं करते हैं। जबकि जैनेतर संन्यासियों के जीवन में इस बात का विचार मात्र भी नहीं है। वहाँ अग्नि का स्पर्श उपयोग, यज्ञ-याग-होम-हवनादि रोज का माना गया है। पानी के बिना तो उन्हें एक दिन भी नहीं चलता है। पानी के बिना उनकी सन्ध्या भी नहीं हो सकती है। तर्पणादि में पानी का उपयोग सबसे पहले है।
जैन साधु की प्रतिदिन की जाती आवश्यक क्रिया रूप प्रतिक्रमणादि में किसी भी प्रकार के पानी आदि के उपयोग की आवश्यकता ही नहीं बताई है । इस तरह सूक्ष्म अहिंसा पालने के अनुरूप-अनुकूल जैन साधु के जीवन के आचार-विचार की व्यवस्था बैठाई गई है। जबकि जैनेतर संन्यासियों की आचार संहिता में सूक्ष्मतम अहिंसा को स्थान नहीं है। जैन श्रावक जो व्रतधारी बनता है उसकी तुलना में उतनी अहिंसा का पालक भी संन्यासी नहीं होता है।
जैन साधु की आचार संहिता में वनस्पति के फल-फूल तरकारियाँ अनाजादि सभी का स्पर्श मात्र भी आजीवन पर्यन्त निषिद्ध किया गया है। क्योंकि अनाज-फल-फूल-तरकारियाँ आदि सब में जीवों का अस्तित्त्व माना गया है । (इसका वर्णन आगे के अध्यायों में काफी किया गया है । वहाँ से पढकर समझना चाहिए।) जीवों का अस्तित्व होने के कारण उनका स्पर्शादि उपयोग-उपभोग किया जाय तो जीवहिंसादि
साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन
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