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२) अभवी-अभव्य जीव
, "सिद्धिगमनायोग्यत्वमभव्यस्य लक्षणम्।" भवी जीव से सर्वथा विपरीत अभवी जीव है । यह कोरडे मूंग एवं पीतल, तथा आकडे के दूध के जैसा अभवी की कक्षा का जीव है । जैसे आकडे के दूध से कभी घी बन ही नहीं सकता है, कोरडा मूंग कभी भी पक ही नहीं सकता है, ठीक वैसे ही अनन्तानन्त काल बीतने पर भी अभवी जीव कभी भी मुक्त हो ही नहीं सकता है। इसका एक मात्र कारण है कि अभवी को मोक्ष के विषय में कभी भी श्रद्धा हो ही नहीं सकती है । वह मोक्ष को मानने के लिए कभी भी तैयार ही नहीं होता है। श्रद्धा का सर्वथा अभाव रहने के कारण वह जीव अभवी की कक्षा का कहलाता है। ऐसे जीव को चाहे कितनी भी अनुकूलताएं सुविधाएं प्राप्त हो भी जाय तो भी वह कभी भी वैसी श्रद्धा बनाने के लिए तैयार ही नहीं है।
३) जातिभव्य (दुर्भव्य) - . भव्य की ही जाति का होने के कारण इसे जातिभव्य जीव कहते हैं । या अन्य नाम दुर्भव्य का भी दिया गया है। यह जीव एकेन्द्रियादि की कक्षा से कभी बाहर ही नहीं निकलता है । आगे बढ ही नहीं पाता है । अतः उसके विकास की कोई संभावना रहती ही नहीं है । अनन्तकाल तक वैसी ही स्थिति बनी रहती है।
कुमारिका-स्त्री के दृष्टान्त की उपमा
भव्य-अभव्यादि जीवों के प्रकार को समझने के लिए कुमारिका के दृष्टान्त के आधार पर आसानी से समझा जा सकता है। मान लीजिए-३ प्रकार की कुमारिकाएं
हैं।
१) पहले प्रकार की कुमारिका कन्या जिसकी शादी होती है, योग्य पति के साथ समागम का योग प्राप्त होता है और परिणाम स्वरूप वह पुत्र को प्रसूत कर मातृत्व का सौभाग्य प्राप्त करती है । ठीक इस प्रकार का भव्य जीव है । वह भी देव-गुरु-धर्म का संयोग-सत्संगादि प्राप्त करके मुक्ति रूपी फल को प्राप्त करता है।
२) दूसरी कन्या जिसकी शादी होती है और पति समागम का संयोग वर्षों तक प्राप्त होने पर भी.. वह जन्मजात वंध्या होने के कारण कभी भी मातृत्व के सौभाग्य का सुख प्राप्त कर ही नहीं सकती है। ठीक वैसा अभवी जीव होता है। चाहे अनन्तबार
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आध्यात्मिक विकास यात्रा