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पारिणामिक भाव जन्य इन भव्य-अभव्यादि में कभी भी, किसी भी काल में, अनन्तकाल के बाद भी कभी भी परिवर्तन होता ही नहीं है । इसे ही पारिणामिक भाव कहते हैं । अर्थात् अनन्तकाल के बाद भी या अनन्तगुने पुरुषार्थ के बावजूद भी कभी भी भवी जीव अभवी नहीं हो सकता है । या अभवी जीव भवी नहीं हो सकता है । ये कर्म जन्य ही नहीं है तो फिर कर्म के क्षय या क्षयोपशमादि से भी अभव्यपना नष्ट हो जाय या बदल जाय यह कदापि संभव ही नहीं है । भव्य अभव्यादि जीवों का लक्षण स्वरूप देखने पर विशेष ख्याल आएगा।
जीव
भव्य जीव
अभव्य जीव जातिभव्य (दुर्भव्य) १) भव्य जीव
..... १० भव्य जाव-
जैसे सोना और पीतल एक जैसी ही धातु होने के बावजूद भी भिन्नता है । जैसे गाय-भैंस का दूध और आकडे वृक्ष का दूध-सभी दूध-दूध की जाति से एक जैसे समानरूप से दूध ही हैं । फिर भी सब में फरक है । गाय-भैंस-बकरी का दूध जमाया जा सकता है। उसमें से दहीं-छास, मक्खन-घी आदि पदार्थ तथाप्रकार की प्रक्रिया से बनते हैं । परन्तु आकडे के दूध में घी आदि बनाने की प्रक्रिया भी संभव नहीं है और... पदार्थ भी नहीं बन सकते हैं । ठीक उसी तरह भव्य-अभव्यादि जीव एक जैसे समानरूप दिखाई देते हुए भी इनमें आसमान–जमीन का अन्तर है । प्राप्ति के लक्ष्य के आधार पर भेद का ख्याल आता है । यहाँ प्राप्ति का लक्ष्य मोक्ष-मुक्ति है । अतः मोक्ष लक्ष्य के आधार पर लक्षण बनाते हुए सूत्रकार कहते हैं- "सिद्धिगमनयोग्यत्वं भव्यस्य लक्षणम्" -सिद्धिगति–मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता जिसमें पडी है वह भव्य जीव है । जैसे आज के पैदा हुए छोटे से शिशु में एक दिन राष्ट्रपति राष्ट्रपिता भी बनने की योग्यता-पात्रता पडी हुई है । समय आनेपर वह जरूर प्राप्त करेगा। जैसे महावीर की आत्मा में भगवान बनने की पात्रता योग्यता पड़ी हुई थी... वह नयसार के प्रथम जन्म से प्रगट हुई और २७ वे जन्म में पूर्ण हुई । इसी तरह समय, संजोग और परिस्थिति की सानुकूलता प्राप्त होने पर भव्य जीव मुक्ति को प्राप्त कर सकता है । मोक्ष पाएगा तो भवी जीव ही पा सकेगा। अभवी नहीं।
सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण