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प्रकार के भेदों में जीवों का वर्गीकरण है । योग्यता - पात्रता की दृष्टि से यहाँ पर इन तीन प्रकारों में जीवों का वर्गीकरण किया गया है, परन्तु यह विशेषरूप से याद रखिए कि ये तीनों भेद कर्मकृत नहीं हैं । निगोद से ही जीवों की इस प्रकार की अवस्था है । वैसे दिखने में सभी जीव समान रूप के ही दिखाई देंगे। परन्तु जब ... सम्यक्त्व - मोक्षादि विषयों की प्राप्ति की दृष्टि से विचार किया जाय तब ही ये भेद ख्याल में आएंगे। जैसे सुवर्ण और पीतल दोनों धातुरूप में समान हैं । और पीलेपन के गुण की दृष्टि से भी समानता बरोबर है, परन्तु सुवर्णगत गुणों और पीतलगत गुणों का विचार करने से स्पष्ट भेदों का ख्याल आ जाता है । दूसरा दृष्टान्त लेने पर और ज्यादा स्पष्टीकरण हो सकता है। मूंग जो कठोल-धान्य है उसका विचार करें। खेतों में जहाँ मूंग की खेती होती है उनमें एक ही पौधे पर अनेक मूंग उगते हैं । दिखाई देने में सभी मूंग एक समान वर्णवाले होते हैं। सादृश्यता इतने ज्यादा प्रमाण में होती है कि... देखकर भेद कर पाना असंभव है । परन्तु जैसे ही पकाने के लिए एक भगोने में पानी में अनेक मूंग डालकर... चूल्हे की अग्नि पर चढाने से परीक्षा हो सकेगी। अग्नि की उष्णता के कारण कई मूंग चढ जाते हैं । फूल जाते हैं। ऊपर का भाग खुल जाता है। लेकिन कुछ ऐसे कोरडे मूंग होते हैं जो सर्वथा नहीं फूलते हैं, न तो चढते हैं, और न ही खुलते हैं । चाहे कितने ही घंटों तक उबलते हुए पानी में पडे रहे, लेकिन कुछ भी नहीं होता है। यह भेद क्यों ? किसने किया ?
ठीक वैसे ही जीवों में भी भव्य - अभव्यादि के भेद हैं । तत्त्वार्थकार स्पष्ट कहते हैं कि.. जीव - भव्याऽभव्यत्वाऽऽदीनि च ॥ २७ ॥ जीव भव्य और अभव्यादि भेदवाले हैं। यदि आप यह पूछें कि भव्य और अभव्य होने का कारण क्या ? क्यों ऐसे होते हैं ? इसके उत्तर में तत्त्वार्थकार - शास्त्रकार कहते हैं कि कर्मादि का कोई कारण नहीं है । किसी भी प्रकार की कर्म की प्रकृतियों के कारण ये भेद नहीं होते हैं। जीवों के तथाप्रकार के भाव ही ऐसे हैं । शास्त्र में ५ प्रकार के भाव बताए हैं- औपशमिक - क्षायिकौ भावौ मिश्र जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक - पारिणामिकौ च ।। २-१ ।। १) औपशमिक, २) · क्षायिक, ३) क्षायोपशमिक, ४) औदयिक और ५) पारिणामिक ये ५ भाव हैं । ये पाँच भाव जीव के होते हैं। इनमें पाँचवाँ पारिणामिक भाव है जिसके आधार पर जीव भव्य कक्षा का भी होता है या अभव्य कक्षा का भी होता हैं । पारिणामिक शेष चार भावों की अपेक्षा सर्वथा अलग ही प्रकार का होता है। ये सब जीव गत भाव होते हैं। अर्थात् जीव तत्त्व इन भावोंमय होता है । पारिणामिक भाव के पीछे कोई कारण नहीं है । इस पारिणामिक भाव के कारण जीव में जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व तथा अस्तित्व, प्रमेयत्व, ज्ञेयत्व, कर्तृत्व, अरूपित्व, नित्यत्व, सप्रदेशीत्व आदि अनेक भाव प्रगट रूप से सदा काल रहते हैं ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा
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