SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में कम होता ही जाता है । इस तरह चौथे सम्यक्त्व गुणस्थान पर आने के बाद प्रमाद का प्रमाण २०% से ३०% कम हो जाता है । मोक्ष का लक्ष बन जाने के कारण आत्मा मोक्ष तरफ प्रयाण करने के लिए उत्सुक है । यद्यपि पुरुषार्थ पूर्ण नहीं भी है फिर भी मिथ्यात्व से ग्रसित होकर पीछे गिरने के लिए नीचे उतरने के लिए, वह तैयार नहीं है । पाँचवे गुणस्थान पर विरतिधर्म की साधना शुरू कर देने के बाद प्रमादावस्था का प्रमाण कम करते करते आत्मा आगे बढती है । इस तरह कर्मबंध की मात्रा घटाती जाती है । और एक कदम आगे बढ़ने पर ... छठे गुणस्थान पर चढकर जब साधु बन जाती है आत्मा तब विरति भी देश से सर्व बन जाती है । अपूर्ण से पूर्ण बन जाती है । इसलिए प्रमाद का भाव घटाने से ही आत्मा अपूर्णता से पूर्णता पर आरूढ हो सकती है । देश(न्यून) से सर्व-संपूर्ण की कक्षा में प्रवेश होता है । यह प्रमाद का प्रमाण घटने के कारण ही संभव हो सकता है। बात सही है । परन्तु अभी तक संपूर्ण अप्रमत्तावस्था नहीं आयी है । इसलिए पुनः कर्मबंध की संभावना ज्यादा है। __छटे गुणस्थानक से आगे साधु जब सातवें अप्रमत्त गुणस्थान पर चढ जाता है, तब अप्रमत्त बन जाता है । बस सातवें से १४ वें तक के आगे के सभी गुणस्थान अप्रमत्त अवस्था के ही है । इसीलिए सातवें गुणस्थान से आगे तक जितने प्रमाण में निर्जरा होती है उतनी निर्जरा की मात्रा... सातवें के पहले नहीं होती है । कम होती है । अतः मात्रा बहुत कम रहती है । और सामने कर्म का बंध भी काफी ज्यादा होता है १ से ६ गुणस्थान तक। सातवें गुण से आगे सब गुणस्थान पर निर्जरा का प्रमाण भी काफी ज्यादा बढ़ जाता है। और कर्मबंध का प्रमाण बहुत घट जाता है । कर्मबंध का प्रमाण घटना और कर्मक्षय निर्जरा का प्रमाण बढना यही साधना की श्रेष्ठता का लक्षण है। यदि इससे विपरीत-उल्टा हो जाय अर्थात् कर्मबंध का प्रमाण बढ जाय और कर्मक्षय निर्जरा का प्रमाण घट जाय तो वह आराधक साधक नहीं विराधक हो जाता है । विराधक पुनः कर्म बांध कर संसारचक्र में परिभ्रमण करने के लिए चला जाता है । अतः द्रव्य से वेषधारी साधु मात्र बनने की अपेक्षा भावसाधु बनना ज्यादा उत्तम है। वही अप्रमत्तावस्था में ज्यादा जा सकता है और टिक सकता है । रह सकता है । इसलिए साधु बनने के बाद भी प्रमत्त से अप्रमत्त बनना ज्यादा श्रेयस्कर है । साधु बनना तो आसान है । लेकिन प्रमत्त से अप्रमत्त बनना बहुत ही कठिन है। लेकिन कठिन होने पर भी यही साधना तो पडेगा। अन्यथा पुनःप्रमाद में चला जाएगा तो कर्मबंध ज्यादा करके पुनः भवभ्रमण में भटक जाएगा। साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन ७६१
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy