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________________ रहती है । प्रमाद के गुणस्थान पर कर्मबंध के हेतु की प्राधान्यता रहती है । अतः बचने के लिए भी अप्रमत्त होना जरूरी है। अप्रमत्त भाव से निर्जरा प्रमत्तावस्था और अप्रमत्तावस्था ऐसी दो अवस्थाएं हैं। इन दोनों में प्रमत्तावस्था-प्रमादग्रस्तता की स्थिति में कर्मबंध की मात्रा ज्यादा होती है। प्रमाद स्वयं ही बंधहेतु है और प्रमाद करने के स्वयं प्रमाद के सहजीवी-सहवर्ती कषाय आदि भी साथ ही आ जाते हैं । अतः कर्म का बंध भी दुगुना-चौगुना होता है । इसलिए प्रमादावस्था कर्मबंध की प्राधान्यतावाली अवस्था है। जबकि प्रमाद से छूटकर-बचकर आत्मा जब अप्रमत्त बनती है... और जितनी देर तक अप्रमत्त रहती है उतनी देर तक कर्मबंध से बचकर रहती है। उस समय निर्जरा = कर्मक्षय की प्रवृत्ति ज्यादा होगी। और निर्जरा की मात्रा भी अप्रमत्त भाव में ज्यादा रहेगी। इसलिए जब... जब आत्मा आध्यात्मिक गुणों की साधना में अप्रमत्त बनेगी तब तब निर्जरा-कर्मक्षय का प्रमाण ज्यादा रहेगा । यही तो हमारा लक्ष्य है । साध्य है । हमारी की जाती हुई धर्माराधना के पीछे मुख्य हेतु रहना ही चाहिए । यदि हम धर्माराधना में अप्रमत्तभाववाले जागृत न हुए और वीर्याचार का पालन करते हुए धर्मक्रिया न की तो क्रिया करने मात्र से निर्जरा का प्रमाण नहीं होगा। इसलिए स्वभाव-रमणातारूप आत्मैकलक्ष बनाकर अप्रमत्तता लानी लाभकारक है। जब जब जीव निर्जरा कर्मक्षय ज्यादा करता है तब तब वह अप्रमत्तभाव में विचरण कर रहा है यह स्पष्ट ख्याल आएगा। किसी भी साधक महात्मा की धर्माराधना-क्रिया को देखते ही ख्याल आ जाता है कि प्रमत्तता है या अप्रमत्तता है। . यदि प्रमत्तावस्था में धर्मक्रिया-साधना करता है तो उसके कारण व्यग्रचित्त की स्थिति आती है । व्यग्रचित्त पुनः अप्रमत्तता को आने नहीं देता है और फिर से कर्मबंध के निमित्त खडे हो जाते हैं। इसलिए जब जब जीव प्रमादग्रस्त होता है तब तब कर्मबंध के निमित्त ज्यादा बढते हैं। और निर्जरा नहीं होती है। ठीक इससे विपरीत जब जब आत्मा अप्रमत्त बनती है तब तब निर्जरा का प्रमाण बढता है । कर्मक्षय ज्यादा होता है । इसलिए बार-बार अप्रमत्त बनना ही ज्यादा लाभप्रद है। १ से ६ गुणस्थान तक प्रमाद की बहुलता है। उसमें भी पहले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर प्रमाद जितना ज्यादा है । १००% है, वह धीरे-धीरे आगे बढने पर प्रतिशत मात्रा ७६० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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