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________________ है । अतः उसकी सत्ता में एक भी कषाय नहीं है । सर्वथा जडमूल से मोहनीय कर्म-कषायों का सफाया कर दिया है । अब अंश मात्र भी अवशिष्ट नहीं है । अतः अन्त में वीतरागता का गुण प्रकट हो जाता है। परन्तु वीतरागता के पहले तक अर्थात् १० वें – ११ वें गुणस्थान तक कषायों का कार्यक्षेत्र रहता है। इतने प्रबल कषाय आत्मा को यहाँ तक अर्थात् मुक्ति के किनारे तक लाकर रख देंगे। लेकिन वीतरागता का स्वाद चखने नहीं देंगे। इस तरह कषाय मुक्ति के मार्ग में अवरोधक - बाधक है। ५) योग- कर्मशास्त्र का सिद्धान्त ऐसा है कि . . . “जोगा पयडिपएसं ठिई-अणुभागं कसायओ कुणइ – जहाँ तक योग होंगे वहाँ तक कर्मबंध भी होगा ही। मन-वचन-काया रूप योग से प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होता है । कषाय से स्थितिबंध तथा रसबंध होता है । इस तरह समय समय कर्मबंध होता ही रहता है। योग की सत्ता प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से १३ वे सयोगि कैवलि गुणस्थान तक है । १३ वे गुणस्थान पर केवलज्ञानी सर्वज्ञ बने हुए परमात्मा को भी मन-वचन-काया के योगों का व्यापार (क्रिया-प्रवृत्ति तो करनी ही पड़ती है। केवली को भी आहारादि ग्रहण करना पडता है अतः यह भी काययोग की प्रवृत्ति से ही होगा। भाषा प्रयोग से बोलना भी पडता है अतः वचनयोग की क्रिया हुई । इस तरह त्रिकरण योग की प्रवृत्ति के कारण प्रदेशबंध १३ वे गुणस्थान तक भी होता ही है । यद्यपि उस ऊँची कक्षा तक राग-द्वेषादि कषाय की स्थिति नहीं है इसलिए बंधस्थिति लम्बी होनेवाली नहीं है। फिर भी योग के कारण प्रदेशबंध प्रकृतिबंध होता है । यहाँ पर ऐपिथिक बंध होता है । सांपरायिक बंध जो कषायजन्य है वह अब नहीं होगा। क्योंकि कषाय की सत्ता का ही सर्वथा अभाव है। अतः जब तक योग की क्रियाएँ चालु रहेगी तब तक निर्वाण-मोक्ष भी होना संभव नहीं है । मुक्ति की प्राप्ति के लिए १३ वे गुणस्थान के बाद उन्हें योगनिरोध की क्रिया करके अयोगी होना पडेगा। तभी मोक्ष संभव होगा। इस तरह त्रिकरण योग की सत्ता १ ले मिथ्यात्व के गुणस्थान से १३ वे सयोगी केवली गुणस्थान तक रहती है। .... इस तरह पाँचों प्रकार के बंध हेतु आत्मा के गुणों का अवरोध करते हुए किन-किन गुणस्थान पर कहाँ तक रहते हैं और कितना नुकसान करते हैं यह ख्याल उपरोक्त विवरण पढने से आएगा । अतः उन उन गुणस्थान पर उस प्रकार के कर्मबंध हेतु से बचना अनिवार्य है। तभी आगे के गुणस्थान पर प्रगति होगी। अन्यथा पुनः कर्मबंध होता रहेगा और शायद पीछे गमन भी करना पडे । विकास पुनः रुक जाएगा। यह प्रक्रिया तो चलती ही साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन ७५९
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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