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गाढ मिथ्यात्व आत्मा को आगे बढाकर चौथे पर जाने ही न दे तो क्या करना? मार्ग में अवरोधक है। ___इसी तरह व्रत विरति पाँचवे गुणस्थान से शुरू होती है। पाँचवा श्रावक का देशविरति का गुणस्थान है यहाँ की विरति स्थूल है । और छठे गुणस्थान पर साधु की अवस्था प्राप्त होती है । अतः सर्वविरति का छट्ठा गुणस्थान है परन्तु अविरति का बंध हेतु । एवं अविरति की आरंभ-समारंभ की प्रवृत्तियाँ चेतन को आगे बढने ही न दे, पाँचवे, छठे गुणस्थान तक पहुँचने ही नदे। तो जीव आगे विकास कैसे करें ? अविरतिं पहले से चौथे गुणस्थान तक प्रधान रूप से रहती है। यही अविरति का क्षेत्र है । हाँ, इतना जरूरै कि मिथ्यात्व के गुणस्थान पर अविरति के प्रमाण की अपेक्षा चौथे सम्यक्त्व के गुणस्थान पर अविरति का प्रमाण काफी कम जरूर रहेगा। फिर भी रहता जरूर है। यह अविरति भी आत्मा के विकास को रोकती हुई आगे नहीं बढने देती है। ..... ____ ३) प्रमाद के बंध हेतु की सत्ता एक से लगाकर छठे गुणस्थान तक है । अतः प्रमाद छट्टे गुणस्थानक से आगे बढ़ने नहीं देगा। आगे सातवें गुणस्थानक से सभी गुणस्थान अप्रमत्तभाव के हैं । इसलिए प्रमादग्रस्त जीव तो आगे के गुणस्थानों पर जा ही नहीं सकता है । वहाँ प्रमाद के कारण टिक ही नहीं सकता है । इसलिए वह छठे गुणस्थान तक जाकर रुक जाता है। इस तरह प्रमाद अप्रमत्त भाव का नाहक अवरोधक है। आगे बढने में विकास साधने में बाधक है । प्रमाद फिर वापिस पीछे गिराता है । अधःपतन करता है।
४) कषाय १ से लेकर १० गुणस्थान तक सत्ता में रहता है । इसलिए इसके १० घर हो गए। ७ वें गुणस्थान से अप्रमत्त बनकर भी जो आगे बढे उनको कषाय ने अपनी चुंगल में फसा दिया। क्रोध-मान-माया-लोभ इन चारों कषायों की अनन्तानबंधी अप्रत्याख्यानीय, प्रत्याख्यानीय और संज्वलन चारों कक्षा ने मिलकर १६ भेदं बनाए। और परस्पर एक दूसरे के साथ गुणाकार करने पर ६४ भेद बनाता है । ऐसे कषाय मिथ्यात्व के गुणस्थान पर तीव्रतम कक्षा के होते हैं। लेकिन जैसे जैसे आत्मा गुणस्थानों पर आगे बढती जाती है कषायों की मात्रा घटती जरूर जाती है । कम होते होते आत्मा को और आगे बढाने में मदद करते हैं । दसवां गुणस्थान सूक्ष्म संपराय लोभ का है । कषाय के अन्तिम स्वरूप लोभ का अन्तिम अस्तित्व १० वे गुणस्थान तक रहता है। उपशम श्रेणीवाले जीव को तो ११ वे गुणस्थान पर भी कषायों की थप्पड खानी पडती है और वहाँ से गिरकर नीचे पतन के गर्त में जाना पडता है । १२ वाँ क्षीणमोह गुणस्थान सर्वथा क्षपक श्रेणि का है । अतः संपूर्ण रूप से कर्मों का क्षय करके ही जीव १२ वे पर आया
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आध्यात्मिक विकास यात्रा