________________
५) अयोगी- सचमुच देखा जाय तो स्वतंत्र चेतनात्मा शुद्ध अयोगी है। योग रहित अयोगी स्वरूप । १)मन २) वचन और ३) काया ये तीन योग हैं। १) मनोयोग से सोचने विचारने की क्रिया होती है । २) वचन योग से बोलने आदि का भाषा का व्यवहार होता है। ३) काययोग से-चलने-उठने-बैठने-खानेपीने-आदि की सभी क्रियाएँ होती हैं । इन तीनों
योगों के बीच आत्मा फँसी हुई है। तीनों ही योग कर्मजन्य हैं । आत्मा इन तीनों योगों के आधीन होकर ही सोचने-विचारने-बोलने तथा व्यवहार करने की प्रवृत्ति कर सकती है। अन्यथा संभव नहीं है। विचार, वाणी-और वर्तन ये तीनों प्रवृत्तियाँ मन-वचन-काया के तीनों योगों के आधीन हैं । अतः इनके जरिए ही होती है । अतः जब तक ये तीनों योग हैं, प्रवृत्तिशील हैं तब तक आत्मा संसार में योगी कहलाएगी और जिस दिन तीनों योगों का निरोध हो जाएगा उस दिन आत्मा अयोगी होगी। अयोगी-अर्थात् योगरहित होने के बाद आत्मा सिद्ध हो जाती है। ऐसी सिद्ध, बुद्ध मुक्त आत्मा को कोई मन-वचन-काया की आवश्यकता ही नहीं रहती है। अतः उसके लिए सोचने विचारने आदि किसीकी आवश्यकता ही नहीं रहती है । चूँकि बहाँ केवलज्ञानादि अनन्त गुणों की पूर्णावस्था है । अतः सवाल ही नहीं खडा होता है।
इस तरह १) सम्यक्त्व २) विरति ३) अप्रमत्त ४) वीतरागता और ५) अयोगी आदि सभी गुणों के घातक के रूप में पाँचों प्रकार के कर्मबंध के हेतु १) मिथ्यात्व, २) अविरति, ३) प्रमाद, ४) कषाय और ५) योग हैं। गुणस्थानघातक बंध हेतु
-- आध्यात्मिक विकास के १४ गुणस्थानक है । क्रमशः इन गुणस्थानों पर चढती हुई आत्मा अपना विकास साधती हुई अग्रसर होती है । आगे बढती है । परन्तु मिथ्यात्वादि पाँचों कर्मबंध के हेतु गुणस्थानों पर अवरोधक बनकर बैठ जाते हैं । जीव को आगे बढ़ने से रोकते हैं। पहला बंध हेतु-मिथ्यात्व पहले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर ही रोक लेता है। मिथ्यात्व आत्मा को आगे बढकर चौथे गुणस्थान पर जाने चढने ही नहीं देता है ।चौथे गुणस्थान पर जाय तो सम्यक्त्व प्राप्त हो जाय । सम्यक्त्व का चौथा गुणस्थान है । परन्तु
साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन
७५७