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________________ विषय - कषाय मिथ्यात्व की वृद्धि करनेवाले विषय हो वे सभी मोहनीय कर्म के ही विषय होते हैं । उन विषयों को लेकर यदि आत्मा अपनी ज्ञान शक्ति उसमें खर्चती है तो निश्चित पुनः मोहनीय कर्मादि कर्मों का बंध होता ही जाएगा। पुनः उनके उदय से वैसी प्रवृत्ति चलती रहेगी । १) स्त्री कथा - स्त्री संबंधी सभी मोहनीय के विषयों की बढा-चढाकर बातें करते रहना । स्त्री के रूप- - रंग - सौंदर्य की बातें, शृंगार की शृंगारिक बातें, हास्यादि पूर्वक . हँसी-मजाक करने की वृत्ति, वासना - कामेच्छा के कारण करने की बातें । कटाक्षादि के विषय, स्त्री विषय मोहक वर्णन करते रहना, गप्पे लगाते हुए बैठे रहना, कामकला की बातें करते रहना इत्यादि मोहवश स्त्री विषय की सभी बातें स्त्री कथा कहलाती हैं। जो कर्मबंधकारक है । २) भत्तकथा— यहाँ संस्कृत का भत्त शब्द भोजन अर्थ में प्रयुक्त है। भोजन भी मोहनीय कर्म का विषय है। मोह ममत्व में प्रिय-अप्रिय पसंद-नापसंद के सैंकड़ों पदार्थ रहते हैं। किसको क्या प्रिय है ? यह सब अलग-अलग विषय है। कई लोग इकट्ठे होकर बैठते हैं और उस विषय में कल्पना के घोडे दौडाते हुए विचारों को करने में मस्त रहते हैं । आज क्या खाएँगे ? कल क्या खाएंगे ? होंगकोंग - सिंगापूर जाएँगे तब वहाँ क्या खाएँगे? वहाँ से खाने को क्या लाएँगे ? इत्यादि विषयों की चर्चा चलती रहती है । खाने के भोज्य पदार्थ मिष्टान्न, नमकीन आदि सैंकडों किसम के पदार्थ हैं। फिर भी व्यक्ति उन पदार्थों में से कितने खाकर पेट भरेगा ? लेकिन जीभ के रसविषयक पदार्थों की तीव्र इच्छा बढती ही रहती हैं । कई लोग खाने-पीने के विषय में स्पर्धा रखते हैं। फिर उसमें समय व्यतीत करते हैं । आत्मिक दृष्टि से आत्मा को कोई लाभ नहीं होता है, निर्जरा भी नहीं, संवर भी नहीं । अतः यह भोजन संबंधी विकथा करके निरर्थक पाप कर्म उपार्जन करने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प ही नहीं बचता है । 1 1 ३) देश कथा- : देश विदेश - क्षेत्र - नगर, गांवो की, घूमने फिरने के क्षेत्र की बातें करने में निरर्थक समय व्यतीत करते रहने से पुनः कर्मबंध होता ही रहता है। कई बार लोग मिलकर बैठ जाते हैं और जमकर देश-विदेश की बातें करते रहते हैं । कभी अमरिका की बातें की, तो कभी जापान के शहरों की बातें की। वहाँ हॉटल-थियेटर ऐसे हैं, वैसे हैं, इत्यादि विषयों में बाते करते समय बिता दिया । परन्तु आखिर लाभ - फायदा कुछ भी नहीं हुआ । इस तरह देशकथा भी प्रमादाचरण है । साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन ७५३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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