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________________ ने पाया। केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद तो आयुष्य भर प्रभु को नींद लेने का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है । क्योंकि नींद का कारणभूत जो दर्शनावरणीय कर्म था वह सर्वथा क्षय ही हो चुका है। अतः कर्म के अभाव में कर्मजन्य दोषों का भी सर्वथा अभाव ही रहेगा। - इस तरह परमात्मा की अभूतपूर्व साधना ने अप्रमत्तभाव में प्रतिक्षण काफी अच्छी वृद्धि की । एक तरफ तपश्चर्या की उग्रता, दूसरी तरफ बिना नींद के अप्रमत्त रहने का योग, तीसरी तरफ जमीन पर बैठना तक नहीं, सोना तक नहीं इतनी उत्कृष्ट कक्षा की अप्रमत्तता, चौथी तरफ सतत कायोत्सर्ग मुद्रा में ही स्थिर रहना, पाँचवी तरफ एकाकी विहार करते रहना, छट्ठी तरफ सतत ध्यान की धारा में ऊपर ही ऊपर चढते रहना, सातवीं तरफ सभी परिषहों को हसते हुए सहन करना, आठवी तरफ मरणान्त उपसर्ग जो जो हो रहे थे, किये जा रहे थे उन सब का प्रतिकार न करते हुए अपने शुभ अध्यवसायों में तल्लीन रहना इतनी सब आश्चर्य कारक अवस्थाएं इकट्ठी होने पर परमात्मा बनने की प्रक्रिया से प्रभु महावीर काफी आगे बढे । और वैशाख शुदि १० के दिन शुक्ल ध्यान की धारा में चढकर श्री वीर प्रभु ने चारों घनघाती कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान केवलदर्शन वीतरागतादि गुणों को प्राप्त किया। ऐसी थी परमात्मा वीर प्रभु की अप्रमत्तता। १ प्रमादस्थान-विकथा... मनुष्य समनस्क मन युक्त प्राणी है । अतः विचार शक्तिसहित है । विचारक को वाचा का उपयोग करके भाषा के माध्यम से अपने विचार दूसरों के सामने रखने का मन सदा . ही बना रहता है । ज्यादा बोलने से व्यक्ति वाचाल बन जाता है । बोलना गलत नहीं है। परन्तु अनुपयोगी निरर्थक और वह भी ज्यादा प्रमाण में बोलते रहना बहुत ही गलत है। स्व और पर दोनों के लिए अहितकर है। ऐसे बोलनेवाले व्यक्तियों के लिए चार विषय बहुत बड़े हैं १) स्त्री कथा, २) भत्त कथा ३) देश कथा, ४) और राजकथा। कथा का अर्थ कथन करना- बोलना । ये चार प्रकार की विकथाएं बताई गई है। वि कथा कहने का तात्पर्य यह है कि विपरीत कथा = विकथा, या विकृतिकारक कथा = विकथा । जो आत्मा के लिए सर्वथा विपरीत है । कर्मक्षय करानेवाली नहीं परन्तु कर्मबंध करानेवाली होने के . कारण विपरीत है। या हमारी आत्मा में गुणों की वृद्धि न करती हुई विकृति करनेवाली है। इसलिए विकथा है। विकथा के चारों विषय मोहनीय कर्म के विषय हैं। मोह-माया-विषय-कषाय की वृद्धि करनेवाले विषय हैं। याद रखिए, जो जो. ७५२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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