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निद्राधीन रहेगी । उस समय अपनी कर्म निर्जरा नहीं कर पाएगी। अतः उस प्रमाद ग्रस्तता के कारण आत्मा को निर्जरा न करने का भारी नुकसान होगा। निद्राधीन अवस्था में उपयोग शून्य होकर चेतना को रहना पडेगा।
कर्म शास्त्र में निद्रा भी पाँच प्रकार की दर्शायी है । १ निद्रा, २ निद्रा-निद्रा, ३ प्रचला, ४ प्रचला–प्रचला, ५ स्त्यानधि । इन पाँचों प्रकार की निद्राओं के अलग-अलग लक्षण बताए हैं । कर्मशास्त्र से जानने चाहिए। कई जीवों को निद्रा दर्शनावरणीय कर्म का इतना भारी उदय होता है कि.. वे बैठे बैठे ही नींद लेने लगते हैं । उदा. के लिए...व्याख्यान श्रवण करते हुए जब नींद आने लग जाय तो उस प्रमाद के कारण..आत्मा कितना किंमती ज्ञानलाभ गवां देती है । उसे कितना नुकसान होता है । प्रवचन जो प्रकृष्ट वचन है । कितना ऊँची कक्षा का ज्ञान उसमें प्राप्त होता है । जिनेश्वर परमात्मा की तारक जिनवाणी का लाभ होता है । आगमिक तत्त्वों की जानकारी प्राप्त होती है । सीधे ही हमारी आत्मा को मन को स्पर्श करती है क्योंकि संबोधन ही सीधा हमारी चेतना को होता है । इससे हमारी चेतना जागृत हो सकती है । ऐसी सुवर्ण सन्धि हम निद्रा-तन्द्रा के प्रमाद में गवां देते हैं।
. इस नींद के प्रमाद के कारण हमने स्वयं ने ही हमारी आत्मा को ज्ञानलाभ का अन्तराय (विघ्न) खडा किया। इससे लाभान्तराय कर्म उपार्जन हुआ। ज्ञान की प्राप्ति के विषय में ज्ञान से वंचित रहे । अतः ज्ञानावरणीय कर्म का भी बंध पडा । दर्शनावरणीय कर्म तो उदय में है ही.. और पनः नई शंखला चली । पुनः कर्मपरंपरा बढती ही गई। इस तरह निद्रा के प्रमाद ने अनेक कर्मों की जाल में आत्मा को फसाई । ऐसी निद्रा के प्रमाद को समझकर ही छोडना चाहिए । निद्रा प्रमाद से बचने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए।
.भ. महावीर की अप्रमत्तभाव की साधना
प्रमादग्रस्तता का यह छट्ठा गुणस्थान साधु का है। छटे गुणस्थान पर साधु प्रमत्त = प्रमादि है । अतः प्रमादावस्था में दोष ज्यादा लगने की संभावना रहती है। प्रमाद भी कर्मोदयजन्य है । अतः कारणभूत को जडमूल में से उखाडकर फेंकने के लिए.. प्रबल पुरुषार्थ करना ही चाहिए। भगवान महावीर प्रभु ने ३० वर्ष के भर यौवनकाल में महाभिनिष्क्रमण किया... संसार का त्याग करके दीक्षा ग्रहण की । आगार से आणगार बनें । तब वे भी पहले छठे गुणस्थान पर ही आरूढ हुए । प्रमत्त साधु ही बने, लेकिन छठे गुणस्थान पर रहकर उन्होंने अप्रमत्त भाव लाकर सातवें गुणस्थान पर ही ज्यादा से ज्यादा रहने का समय निकाला। अप्रमत्त बनने के लिए उन्होंने घोर तपश्चर्या करने का मार्ग
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आध्यात्मिक विकास यात्रा