SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के हटने पर भी उसके मन का संघर्ष नहीं टलता है। मन में मानसिक कषाय की धारा चलती ही रहती हैं । यदि क्षमायाचनादि करके हम पुनः अपने गुणों में लौट आएं तो ही उन कषायों से बच सकते हैं । अतः अत्यन्त आवश्यक है कि हम पुनः पुनः आत्म निरीक्षण करते रहें। जाप-ध्यान-आत्म चिन्तन की सन्धि प्रदान करते हैं जिससे अपने कषायों की गलती का ख्याल आता है। और पश्चाताप आदि के भाव जगने की संभावना काफी बढती है। जिससे बचने-सुधरने के निमित्त बढते हैं। ऐसे कषाय का कर्मबंध कारक स्वरूप समझकर... प्रमाद रूप में इसे अच्छी तरह पहचानकर यथाशीघ्र इससे छुटकारा पाने का संकल्प करना चाहिए। ४ निद्रा प्रमाद___ पाँच प्रमादों में चौथे क्रमांक पर निद्रा प्रमाद की गणना की गई है । निद्रा भी आत्मा के लिए एक प्रमाद ही है । प्रमाद को कर्मबंध का प्रबल हेतु कहा है । आत्मा अपने मूलभूत स्वभाव से न तो नींद लेने के स्वभाववाली है और न कोई उसे नींद आती ही. है । नहीं। सम्भव ही नहीं है । परन्तु कर्मग्रस्त संसारी आत्मा की स्थिति कैसी होती है? आत्मा का स्वभाव स्वगुणों पर केन्द्रित है। और कर्म आत्मप्रदेशों पर लगकर आत्मा के मूलभूत गुणों को सर्वथा आच्छादित कर देता है । ढक देता है। गण ढके की बाहरी व्यवहार कर्मजन्य सर्वथा विपरीत ही होता है । आत्मा का गुण ज्ञान का होता है तो कर्म उसे विपरीत करके व्यवहार में अज्ञानी-विपरीतज्ञानी-मिथ्यात्वी बना देता है। कर्म का काम ही है आत्मा के गुणों को सर्वथा उल्टा विपरीत ही करना । आत्मा को जैसे आहार भोजनादि की आवश्यकता नहीं है और न ही आत्मा को भूख-प्यास लगती है । लेकिन क्षुधा वेदनीय आदि कर्मों ने आत्मा को भोजन, खाने, पीने के पीछे ऐसा लट्ट कर दिया है कि अब उससे बचना असंभव लगता है। इसी तरह चेतनात्मा को नींद लेना-सोने आदि की कोई आवश्यकता ही नहीं है । लेकिन दर्शनावरणीय कर्म ने आत्मा को निद्राधीन प्रमादि बना दी । अब सोते रहना, नींद लेना, तथा तन्द्रा वगैरे से ग्रस्त रहना आदि सिखा दिया । ज्ञानमय-ज्ञानपूर्ण ऐसी आत्मा को सोने की जब कोई आवश्यकता ही नहीं है तब निद्रा दर्शनावरणीय कर्म ने आत्मा को निद्राधीन कर दी। अब आलस्य प्रमाद में लेटे रहने में ही उसे मजा आती है। जब जब यह चेतनात्मा इस तरह निद्राधीन होकर सोती ही रहेगी तब तब निश्चित रूप से नये कर्म उपार्जन करेगी। कर्मों की शृंखला चलती ही रहेगी। दूसरी तरफ आत्मा साधनाका साधक ७४९
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy