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अपनी आत्मा के मूलभूत क्षमा, समतादि गुणों के स्वभाव के ठीक विपरीत भावको विभाव कहा है। अर्थात् क्षमा-समतादि मूलभूत स्वभाव के विपरीत विभाव रूप में क्रोध-मानादि आए हुए हैं। ठीक आत्म गुणों के = क्षमादि के उल्टे ही क्रोधादि हैं। अतः इनको विपरीत भाव = विभाव कहा है। और वि को विकृति अर्थ में भी लें तो भी अर्थ, इस प्रकार बनता है। विकृत भाव = विभाव 'जैसे दूध' में नींबू का रस डालने से दूध फट जाता है । विकृति आ जाती है। ठीक उसी तरह आत्मा के क्षमा समतादि गुण रूप दूध में विकृति आने रूप क्रोधादि हैं। ___शान्त सरोवर में जैसे ही एक कंकड कोई डाल दे.. तो पूरे सरोवर के जल में खलबली मच जाती है । चारों तरफ का शान्त जल हिल जाता है । वमल पैदा होता है । वमल की लहरें गोलाकार स्थिति में किनारे तक पहुँच जाती हैं। पानी की शान्ति-स्थिरता भंग हो जाती है । ठीक इसी तरह हमारे शान्त मनरूपी सरोवर में यदि किसीके क्रोध का एक शब्द भी आ जाता है तो, एक गाली कोई बोल देता है तो उसके एक शब्द से हमारे मन के विचारों में आन्दोलन शुरू हो जाता है । विचारों में बड़ा भारी तूफान आता है । मन की शान्ति खो जाती है । शान्ति भंग हो जाने के बाद कषायों की तीव्रता बढ़ती जाती है। लेश्या और ही बिगडती जाती है । आर्त-रौद्रध्यान के अध्यवसायों में और ज्यादा तीव्रता आ जाती है । परिणाम स्वरूप भारी कर्म बंध हो जाता है । इस तरह प्रमाद कर्मबंध का बडा भारी कारण बन जाता है । इसी कारण से कषाय प्रमादरूप है।
आत्मा को कर्म बंधाने में कषाय का सबसे बडा भाग है, हाथ है। कर्मबंध में भी ज्यादा तीव्रता लाने का काम कषायों का है । क्रोधादि कषायों में जैसे जैसे तीव्रता आती जाती है उसी तरह आत्मा के कर्मबंध में भी तीव्रता, अत्युत्कटता आती है। इतना ही नहीं रसबंध में तीव्रता भी कषायों के कारण आती है। अतः यह विभाव दशारूप कषाय आत्मभाव से = स्वभाव से सर्वथा विपरीत है, विकृत है।
जैसे उबला हुआ गरम पानी सदा काल ही गरम नहीं रहता है । आखिर १-२,४ घण्टों के बाद ठंडा होता ही है । क्योंकि शीतलता ही पानी का मूलभूत स्वभाव है । गरमी अग्नि के संयोग से आती है ठीक उसी तरह आत्मा में कषाय बाहरी निमित्तों से, संयोगों से आता है । किसी ने हमको गाली दी तो हमें क्रोध आया, किसी ने हमारा अपमान किया तो हमें क्रोध आया। कहीं हमारी निर्धारित धारणा–इच्छा पूरी नहीं होने पर भी हमें कषाय आता है । हमारे क्रोधादि में वृद्धि होती है । परन्तु अग्नि का संयोग हटने से पानी धीरे-धीरे शान्त हो जाता है । लेकिन मनुष्य का स्वभाव बहुत विचित्र है । बाहरी निमित्त या कारण
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आध्यात्मिक विकास यात्रा