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________________ ३. कषाय कषाय राग माया लाभ क्रोध मान -१६ अन.. अप्र. प्र. संज्वलन माया-लोभ-कषायशेत्येतद्रागसंज्ञितं द्वन्द्वम् । क्रोधो-मानश्च पुनद्वेष इति समासनिर्दिष्ट ॥ पाँच प्रकार के प्रमादों में तीसरा प्रमाद स्थान कषाय है । कष् = संसार और आय अर्थात लाभ अर्थात जिससे सतत संसार की वृद्धि हो संसार बढता ही रहे उसे कषाय कहते हैं । कषाय का मूल उद्गम स्थान है राग और द्वेष । इन राग-द्वेष के ही अवान्तर भेद के रूप में रागभाव से बने हुए माया और लोभ ये दो कषाय हैं। जबकि क्रोध और मान का समावेश द्वेष के अन्तर्गत किया गया है । इस प्रकार के ये चार कषाय हैं। . काल मान–एवं प्रमाणादि की दृष्टि से ये क्रोधादि चार कषाय पुनः १६ प्रकार के हैं । १)अनन्तानुबंधि २) अप्रत्याख्यानीय, ३) प्रत्याख्यानीय, और ४) संज्वलन ये ४ प्रकार के हैं। क्रोधादि प्रत्येक चार-चार प्रकार के हैं । अतः ४४४ = १६ अवान्तर प्रकार हैं। शास्त्रकार भगवंतों ने अवान्तर गुणाकार से १६ के ६४ प्रकारों की भी गणना की है। स्वभाव शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा है कि.. स्व = आत्मा, भाव - गुण। स्व शब्द आत्मा के लिए प्रयुक्त हुआ है। आत्मा के जो ज्ञानादि गुण हैं उन भावों में मस्त रहना इसे ही स्वभाव कहते हैं। जैसे पानी का मूलभूत स्वभाव है- शीतल । शीतलता पानी में सदाकाल ही रहती है । उष्णता कृत्रिम है। बाहर से आती है । अग्नि के संयोग से उष्णता-गर्मी आती है लेकिन वह गर्मी कब तक? जब तक अग्नि का संयोग रहेगा तब तक । अग्नि का निमित्त दर होते ही पानी धीरे धीरे शीतल-ठंडा होने लगता है। पुनः अपने मूलभूत शीतल स्वभाव में आ जाता है । ठीक इसी तरह चेतनात्मा अपने मूलभूत स्वभाव से नम्र, सरल, संतुष्ट, वीतराग, ज्ञानी, क्षमाशील, समता युक्त है । क्रोधादि आत्मा का स्वभाव नहीं है । ये तो विभाव है । वि = विकृत-विपरीतभाव को विभाव कहते हैं। साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन ७४७
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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