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________________ क्रिया है। आत्मा जितनी अप्रमत्त भाव से स्व स्वभाव में मस्त रहें उसमें जितना चिदानन्द-ज्ञानानन्द प्राप्त होता है उतना पुद्गल पदार्थ के आधीन होने पर कभी भी मिलनेवाला नहीं है। फिर भी मोहवश-अज्ञानवश जीव ने भ्रान्ति से वैसा मान लिया है और इसी कारण पाँचों इन्द्रियों के २३ विषयों की क्षणिकता–विनाशिता होते हुए भी सुख-बुद्धिसे उनमें आसक्त होकर सुखप्राप्ति के लिः। प्रयत्न करता है । यही दुःखास्पद है । परन्तु सुख मिलना तो दूर रहा ऊपर से जीव एक-एक विषय के आधीन होकर दुःखी-दुःखी हो जाता है। एकैकविषयसंगाद् रागद्वेषातुरा विनष्टास्ते। . किं पुनरनियमितात्मा जीवः पञ्चेन्द्रियवशार्तः ।। ४७॥ वाचक मुख्यजी स्वरचित प्रशमरति ग्रन्थ में यहाँ तक कहते हैं कि. पाँच इन्द्रिय के २३ विषयों में से एक-एक विषय में आसक्त बने हुए जीव हिरन-मछली-तीतली आदि नाश पाते हैं तो फिर जिसको पाँचों इन्द्रियां एक साथ मिली है और उन पाँचों के आधीन-आसक्त बनकर जीनेवाले मनुष्य की क्या हालत होगी? इन्द्रियों के वश–अधीन चगनेवाला अपना विनाश-पतन करता है। न हि सोऽस्तीन्द्रियविषयो येनाभ्यस्तेन नित्यतृषितानि । ... तृप्ति प्राप्नुयुरक्षाण्यनेकमार्गप्रलीनानि ॥ ४८ ।। क्या इन्द्रियां तृप्त होती हैं ? इस विषय में कहते हैं कि कितने भी विषय भोगों को भोगने वाली इन्द्रियां कभी तृप्त नहीं होती है । क्या अग्नि कभी भी घी पीकर तृप्त-संतुष्ट होती है ? शान्त होती है ? नहीं । ठीक वैसे ही ये पाँचों इन्द्रियाँ अपने सभी विषयों को अनन्त बार भी भोग ले, पा ले तो भी कभी भी तृप्त नहीं हो सकती । सदा ही सुखकारक विषयों के लिए तरसती रहेगी। उदा. कितने भी मनपसंद मीठे पदार्थों को खाकर जीभ तप्त हो ही नहीं सकती है। वह जीभ सदा ही तरसती रहती है। ऐसी ही हालत सभी इन्द्रियों की है । अतः इन्द्रियों के आधीन बनना-गुलाम बनना और इन्द्रियों के विषयों में ही सुख पाने की धारणा रखना यह मोक्षार्थी जो आध्यात्मिक विकास की दिशा में गतिशील एवं सक्रिय है उसके लिए ऐसी इन्द्रियों की गुलामी और विषयासक्ति बाधक बनती है। पतनकारक बनती है । यह प्रमाद का विषय है—प्रकार है। और कर्मबंध का कारण है अतः सर्वथा वर्ण्य है। ७४६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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