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________________ वाचिक भाषा के प्रमाद के भी कई प्रकार हैं। बोलने में भी उसके पास शब्दों की प्रचुरता नहीं रहती है। बोलने में जवाब देने में बहुत ही ज्यादा प्रमादि बनता रहता है । ऐसे लोग भी मानसिक तनावग्रस्त होते होते मनोरोग के शिकार बनते जाते हैं । भाषा शैथिल्यता का दोष बढ़ता जाता है । कायिक-शारीरिक शैथिल्य सबसे ज्यादा भयंकर कक्षा का होता है । मन शरीर से और शरीर मन से जुडा है। Psycosomatic स्थिति में दोनों एक दूसरे से संलग्न होने के कारण मन की असर शरीर पर पडती है। कभी भी कायिक प्रमाद अकेला नहीं होता है। यह मानसिक प्रमाद के कारण ही होता है । काया अपने आप ही वैसी प्रमादि नहीं रहती है । परन्तु मानसिक प्रमाद के कारण ही काया वैसी प्रमादग्रस्त बन जाती है । I आत्मा पर लगे अन्तराय कर्म के पाँचवे भेद वीर्यान्तराय कर्म के उदय के कारण जीव प्रथम मानसिक प्रमादि ज्यादा बनता है । फिर वही उसकी काया पर उतरकर काया भी वैसी बना देता है । प्रमादि व्यक्ति की काया धीरे-धीरे स्थूल बनती जाती है । क्योंकि पडे-पडे लेटे-लेटे शरीर का पाचन तन्त्र बिगड़ जाता है । चरबी जमा होती जाती है । और धीरे धीरे शरीर और ज्यादा भारी - वजनदार बनता जाता है । फिर तो उठने बैठने आदि में भी काफी तकलीफ होने के कारण व्यक्ति मानसिक आलस्य को और बढाता है । क्योंकि शरीर को वह किसी भी प्रकार की तकलीफ देना ही नहीं चाहता है । इसलिए काया और ज्यादा स्थूल बनती जाती है। ज्यादातर ऐसी स्थिति श्रीमंतों के घरों में देखी जाती है । ज्यादा श्रीमंताई भी इस दृष्टि से अभिशाप है। ऐसा शरीर किस काम का जो स्वयं के लिए ही काम न आए। और शरीर को अपने कामों को करने में सहायक न बना सके तो क्या फायदा ? यह मानसिक - वाचिक - कायिक प्रमादियों की स्थिति है । अतः प्रमाद कितना खतरनाक है इसकी भयंकरता का स्वरूप ख्याल में आता है। अगर संसार के व्यवहार में प्रमाद के कारण ऐसी स्थिति हो जाती है । तो सोचिए ! मोक्षमार्ग पर अग्रसर जो साधु साधक बना हुआ है उसकी प्रमाद के कारण कैसी स्थिति होती होगी ? कल्पन करिए । यहाँ आध्यात्मिक विकास में बाधक - 3 -- अवरोधक बननेवाले प्रमाद का विचार I करें साधक के लिए बाधक प्रमाद ७४२ मज्जं विसय कसाया, निद्दा विकहा य पंचहा भणिया । एए पंच पमाया, जीवं पाडंति संसारे ॥ ११ ॥ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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