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नहीं पा सकता है। उदाहरणार्थ साधु उपवासादि तप भी करें परन्तु उसमें भी प्रमादादि के अधीन होकर निर्जरा का फल कम कर देता है। जैसे अप्रमत्त बनकर यदि उपवास किया जाय तो शत प्रतिशत पूरा फल पाता है और यदि प्रमादग्रस्त रहकर उपवास करे तो ५०% फल भी मुश्किल से पाए । इसलिए प्रमाद की उपस्थिति घातक है । साधु के लिए दो गुणस्थान
१) छट्ठा प्रमत्तसाधु, २) सातवाँ अप्रमत्त साधु
जैसे श्रावक के लिए चौथा तथा पाँचवा ये दो गुणस्थान हैं। वैसे ही साधु के लिए छट्ठा और सातवाँ ये दो गुणस्थान हैं । वैसे देखा जाय तो छठे गुणस्थान पर साधु बनने के बाद १४ वे अन्तिम गुणस्थान तक सभी साधु के ही गुणस्थान हैं । इस तरह १४ में से ९ गुणस्थान साधु के हैं । सर्वत्र मूलभूत अवस्था साधु की ही रहती है । फिर भी व्यवहार चारित्र की प्रधानता के आधार पर छठे और सातवें इन दो गुणस्थानों पर साधु की गणना विशेष रूप से की जाती है । यद्यपि ये दोनों गुणस्थान साधु के ही हैं, दोनों गुणस्थान पर साधु समान रूप से रहता है। फिर प्रमाद ने दोनों साधु की अवस्था में भेद किया। अतः छटे गुणस्थानवर्ती साधु को प्रमत्त-प्रमादि साधु कहा और सातवें गुणस्थानवर्ती साधु को एक कदम आगे-ऊपर चढा हुआ अप्रमत्त-अप्रमादि साधु कहा । यही मुख्य भेद है दोनों के बीच में । अतः प्रमाद भेदक है। प्रमाद-कारणभूत है । प्रमादग्रस्तता दोष है। और प्रमाद रहितता गुण है । अप्रमत्त भाव में सदा जागृति-सावधानी पूरी रहती है । बस, वही जागृति और सावधानी छ8 गुणस्थान में प्रमाद के कारण नहीं रहती है । अतः यह प्रमाद क्या है ? कैसा है ? इसे भी पहले पहचानना अत्यन्त आवश्यक है। प्रमाद का स्वरूप-..
व्यवहार की चालु भाषा में सामान्य आलस्य के अर्थ में ही प्रमाद समझा जाता है। यह प्रमाद का प्राथमिक सामान्य अर्थ है । परन्तु आगे आध्यात्मिक धारणा की कक्षा में प्रमाद को मात्र शारीरिक आलस्य न समझकर विशेष अर्थ में समझा गया है । शारीरिक आलस्य यह प्राथमिक सामान्य कक्षा का है। निद्रा-सोते रहने आदि की प्रवृत्ति भी प्रमाद ही है, परन्तु यह शारीरिक कक्षा का प्राथमिक प्रमाद मात्र है। जब इससे ऊपर उठकर मानसिक-आध्यात्मिक कक्षा के प्रमाद की मीमांसा की जाय तब वह मात्र आलस्य या निद्रा के रूपमें ही सिमित नहीं रहता है । आत्मिक कक्षा पर पहुँच जाता है। आत्मा के गुणों का विकास न करना प्रमाद है । आत्मा पर लगे कर्मों के गाढ आवरणों को दूर न
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आध्यात्मिक विकास यात्रा