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________________ चारित्र-तपादि सभी जान रहित मुडदे के जैसे हो जाते हैं। बेजान स्थिति हो जाती है । ज्ञानादि के अंदर अप्रमत्त भाव, भाव विशुद्धि नहीं आती है । खमासमणे आदि में शुद्धि नहीं आती है । अतः शक्तिसंचार के लिए आत्मा के वीर्य गण के आधार पर वीर्याचार के आचरण की आराधना करनी चाहिए। इस तरह पंचाचार के पालन पूर्वक की साधना में विचरते हुए साधक, साधु महात्मा सिद्धि गति की प्राप्ति के साध्य को साधते हुए मोक्षमार्ग पर अग्रसर होते हैं । पाँचों आचार की पालना उनमें पूर्णरूप से होनी ही चाहिए। छडे गुणस्थान का नामकरण श्रद्धा चौथे गुणस्थान से प्राप्त कर जीव आगे बढा । विरति धर्म का श्रीगणेश पाँचवे गुणस्थान से हुआ। अतः विरति के संस्कार श्रावक की कक्षा से ही प्रारंभ हो चुके हैं । हाँ, वहाँ विरति का प्रमाण अत्यन्त अल्प था। लेकिन छटे गुणस्थान पर आते आते अधूरी-अपूर्ण विरति पूर्ण बन गई । अर्थात् देश विरति सर्व विरति बन गई। आंशिक विरति सर्वांशिक विरति बन गई । स्थूल विरति थी वह छठे पर सूक्ष्म विरंति बन गई। इस तरह विरति के क्षेत्र में विकास होता ही गया। छठे गुणस्थान पर साधु पूर्ण विरतिधर श्रेष्ठ कक्षा में पहुँच गया है । इसलिए आरम्भ समारंभ हिंसादि जन्य सैंकडों पापकर्मों से साधु बच गया है। छट्टे गुणस्थानक का नाम प्रमत्त संयत गुणस्थान है । सर्वविरतिधेर का गुणस्थान है। इसका ही प्रमत्त विरत गुणस्थान नामकरण भी किया है । इस छठे गुणस्थान के नाम के आगे “प्रमत्त" विशेषण लगाया है। शेष संयत या विरत शब्द तो सर्व विरति के ही सूचक हैं। अतः इन शब्दों के प्रयोग में कोई आपत्ति ही नहीं है । गुणस्थानक की पूर्ण स्थिति के सूचक नाम है । परन्तु 'प्रमत्त' विशेषण ने इस गुणस्थानवर्ती साधक साधु की प्रमादग्रस्तता को सूचित की है। प्रमाद यद्यपि विपरीताचरण नहीं भी कराता है फिर भी जो शुद्ध आचरण करना है उसमें न्यूनता रहती है। सच देखा जाय तो प्रमाद साधना के क्षेत्र में प्रगति करनेवाले की गति मन्द कर देता है। साधक को कमजोर कर देता है । साधना के मोक्ष मार्ग में रोडे डालकर साधक को अटकाना रोकना यह प्रमाद का काम है । अतः प्रमाद बाधक है । मार्गरोधक है । ऐसे अवरोधक प्रमाद के आधीन बननेवाला साधक साधना में तीव्रता नहीं ला सकता है। जितनी साधना करनी हो उतनी कर भी नहीं सकता है अतः आगे निर्जरा का पूरा फल भी साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन . ७३९ .
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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