________________
३) चारित्राचार विरति प्रधान होने से इसमें सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषधादि विरतिधर्म
के आचरण की गणना होती है । यह व्रतविरति रूप धर्म है । ४) तपाचार के दो भेद हैं- १) बाह्य तप, और दूसरा आभ्यंतर तप है । इन दोनों में
६-६ प्रकार है । १) अनशन-उपवासादि रूप है । २) उणोदरी = कम खाना, ३) वृत्ति संक्षेप, ४) रस त्याग, ५) कायक्लेश, ६) संलीनता ये ६ प्रकार के बाह्य तप
उपवास आयंबिल एकासणा-बिआसणा-नवकारशी, पोरिसी, साढपोरिसी-पुरिमढ-अवड्ड तथा–चौविहार-तिविहार आदि सभी पच्चक्खाणों की गणना बाह्य तप में होती है। ३)वृत्ति संक्षेप में इच्छाओं को सीमित-मर्यादित करनी होती है । कम संख्या में द्रव्य-वस्तुएं लेनी। ४) रस स्वादादि का त्याग करना आयंबिल जैसा अलूणा आहार लेना। ५) विहारादि द्वारा काया को कष्ट देना, क्षुधादि सहन करके काया को कष्ट देना। ६) संलीनता- अंगोपांग को संकुचित कर रखना। तथा मन-वचन-काया को, एवं कषायों को भी संकुचित कर के रखना
संलीनता है । इस तरह बाह्य तप के ६ प्रकारों को तपाचार कहा गया है। ____ आभ्यंतर तप में १) प्रायश्चित्त, २) विनय, ३) वैयावच्च, ४) स्वाध्याय, ५)
ध्यान और ६) कायोत्सर्ग ये सभी आभ्यंतर तपाचार हैं । १) अपने किये हुए पापों को धोने के लिए पश्चात्ताप की भावना से प्रायश्चित्त करना, गुरुदेव के पास आलोचना करके पूरी करना यह प्रायश्चित आभ्यंतर तपाचार है। २) देव-गुरु आदि का विनय करना-नम्रता के आचरण को आभ्यंतर तप कहा है। वैयावच्च बाल-ग्लानादि की सेवा-सुश्रुषा करनी। ४) वाचना-पृच्छनादि पाँच प्रकार से स्वाध्याय करना। ५) धर्मध्यान शुक्लध्यानादि की ध्यान साधना उत्कृष्ट आभ्यंतर तप है। तथा छट्ठा कायोत्सर्ग का भेद है । इस तरह तपाचार के आचरण में इन १२ प्रकार की
तप साधना होनी चाहिए। वीर्याचार = यह आत्मा की अखूट शक्ति के खजाने स्वरूप है । यह गुण माला में धागे की तरह अनुगत गुण है । जैसे व्यक्ति में जान रहती है, और मुडदे में जान नहीं रहती है । जान रहित मुडदा जैसे सर्वथा निष्क्रिय रहता है । कोई क्रिया नहीं कर सकता है । ठीक इसी तरह वीर्याचार गुण की शक्ति के संचार बिना ज्ञान दर्शन और
७३८
आध्यात्मिक विकास यात्रा