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________________ आत्मा के मुख्य ज्ञानादि गुणों के आधार पर वर्तमान में वैसा आचरण-व्यवहार-वर्तन करना यह आत्मधर्म है, आध्यात्मिक धर्म है, ऐसे धर्म का नाम रखा है “पंचाचार” । पाँचो आचार का सुव्यवस्थित पालन आचरण करना । जैसे फूलों को धागे से गूंथकर माला बनाई जाती है। धागा सबके बीच अनुगत रहता है । मणकों को धागे में पिरोकर माला बनाई जाती है । इन सभी मणकों में जैसे धागा अनुगत रहता है ठीक इसी तरह ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपादि पुष्प या मणकों रूपी गुणों की माला में वीर्याचार का धागा अनुगत रहता है। वीर्य आत्मा का एक ऐसा गुण है जो आत्मा को ज्ञानादि सभी गुणों की प्रवृत्ति में शक्ति प्रदान करता है, आत्मबल है। इसकी शक्ति के . संचार से ज्ञानादि सब प्रदीप्त होते हैं । प्रकट रूप से प्रवृत्ति करते हैं। ज्ञान गुण से पदार्थों-तत्त्वों आदि को जानने का काम होता है । दर्शन गुण से आत्मा सभी पदार्थों को देखती है । दर्शन और ज्ञान के बीच अर्थात् जानने और देखने की क्रिया में पहले कौन और बाद में कौन का भेद निकालना बड़ा ही मुश्किल है । कई जीव जानने के पश्चात् देखते हैं तो कई जीव देखने के पश्चात् जानते हैं । पहले देखने की वृत्ति रहती है फिर जानने की वृत्ति रहती है । लेकिन कई जीवों में सीधे ही ज्ञान की प्रवृत्ति बढने पर वे सीधे ही जानने का लक्ष रखते हैं। न भी देखे तो भी चलता है। वैसे दर्शन भी ज्ञान की प्राथमिक भूमिका ही है। दर्शन का कार्य भी आत्मा तक ज्ञान पहुँचाना है, परन्तु वह देखकर या पाँचों इन्द्रियों के द्वार से पहुँचाता है । अतः दर्शन का ज्ञान सामान्याकार ज्ञान है, विशेष नहीं है। जबकि ज्ञान का कार्य विशेषाकार है। यह किसी भी पदार्थ का ज्ञान विशेषरूप में ग्रहण करता है। उदा. किसी वृक्ष को देखने मात्र से जो ज्ञान होगा वह सामान्य होगा। यह किसका वृक्ष है ? कैसे पत्ते हैं ? कैसे फल हैं ? इत्यादि विशेषाकार का स्वरूप दर्शन में निर्णीत नहीं होताहै। जबकि ज्ञान में विशेषाकार निर्णय होता है । इन्द्रियों द्वारा अन्य सामान्याकार दर्शन का कार्य सामान्य बोध करने का है । ज्ञान गुण से मतिपूर्वक विश्लेषण करना, चिन्ता-चिन्तनादि करके पदार्थों का स्वरूप विशेषरूप से जाना जाता है । इस तरह ज्ञान और दर्शन दोनों ही आत्मा तक ज्ञान पहुँचाने का ही काम करते हैं। ये गुण रूप है। अब इनका ही आचरण करना है। इसके लिए आचाररूप धर्म बनाया है। । पाँचो आचार की विविध प्रकार की प्रवृत्ति धर्म के विविध आचरणरूप में है। ७३६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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