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________________ आधार पर १०८ मणके की माला की व्यवस्था की गई है। ये १०८ मणकों पर गुणों का ही जाप करना चाहिए। गुणों का स्मरण करना चाहिए। गुणों के स्मरण पूर्वक पंचपरमेष्ठियों का जाप स्मरण करना ही सच्चा शुद्ध जाप है । यह गुणात्मक व्यवस्था कालिक शाश्वत है सदा काल यही स्वरूप स्थिर रहता है। तीनों काल में आचार्य-उपाध्याय साधु की व्यवस्था एवं स्वरूप में कहीं कोई फरक नहीं पडा । नवकार महामंत्र के पाँच परमेष्ठि भगवंतों में तीसरे, चौथे और पाँचवे परमेष्ठी के रूप में तीनों गुरु भगवंत हैं। नवकार महामंत्र जो अनादि-अनन्तकालीन शाश्वत है उनमें देव गुरु की स्थापना भी शाश्वत है । अतः आचार्यादि-साधु पर्यन्त सभी गुरु पद भी नित्य-शाश्वत हैं। तीनों काल में यह स्वरूप एक जैसा ही है और रहेगा। गुणों का शुद्ध आचरण ही धर्म है- . धर्म का आधार गुणों पर है और गुणों का आधारभूत केन्द्र स्थान चेतनात्मा द्रव्य है। चेतनगत = अनन्त ज्ञान आत्मगत गुण ज्ञानादि आत्मा में ही रहते हैं। ज्ञान-दर्शन-यथाख्यात यथाख्यान अनन्त दशन > चारित्र, तप और अनन्तवीर्य ये आत्मा चरित्र के मूलभूत गुण हैं । यद्यपि ये गुण कर्म জ্বালি के आवरण से आच्छादित होने के कारण प्रकट नहीं है। हाँ, कर्म के आवरण से आच्छादित होने पर भी सर्वथा-संपूर्ण-पूर्णरूप से सर्वांश में ढके हुए नहीं है । जैसे घने काले मेघ कितने भी ढके हुए हो फिर भी सूर्य के प्रकाश की प्रभा तो फैलती ही है । इस फैली हुई प्रभा के कारण दिन और रात में आसमान-जमीन के जितना अन्तर रहता है । रात्रि के गाढ तिमिर जैसा दिन की प्रभा का अन्धेरा नहीं होगा। ठीक इसी तरह आत्मा रूपी सूर्य पर कर्म रूपी घने काले बादलों का आवरण छा भी जाय तो भी वह सर्वांश में सर्वथा आत्मा को ग्रस्त नहीं करता है । आंशिक आत्मगुणों का प्रकाश प्रकट रहता है। इसी कारण आत्मा अपने अस्तित्व को टिकाकर रहती है । इसलिए आत्मा के ज्ञानादि गुणों का व्यवहार आंशिक रूप में प्रकट रहता है। सिद्धात्मा साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन ७३५
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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