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किसी ईश्वर के हाथ में यह फल नहीं है । कोई ईश्वरकृत व्यवस्था नहीं है । यह तो कर्म कृत
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व्यवस्था है ।
उत्तरा २५/३०
भ. महावीर प्रभु तो स्पष्ट शब्दों में यहाँ तक कहते हैं कि.. सिर मुंडाने मात्र से कोई श्रमण-साधु नहीं कहलाता है । और न ही ॐकार मात्र का आचरण कर लेने से कोई ब्राह्मण कहलाता है । और जंगल अरण्य में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं कहलाता है । इसी तरह कोई जंगल में पेड के पत्ते ही लपेट कर ( कुशचीर-वस्त्र) कपडे के रूप में पहनने मात्र से तापस- नहीं बनता है । ये तो चिन्ह मात्र है । ये तो दुनिया को देखने के लिए पहचान मात्र है । इतने मात्र से कोई मुनिपना या तापसपना आ नहीं जाता है । निरर्थक है । श्री वीर प्रभु ने स्पष्ट कहा है कि
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न वि मुंडिएण समणो, न ॐकारेण बम्भणो । न मुणीरण्णवासेण, कुसचीरेण न तावसो |
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उत्तरा २५/३१
जीवन बताते हुए प्रभु फरमाते हैं कि ... क्षमा-समता के रखने से ही श्रमण साधु बनता है, कहलाता है । और शुद्ध नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करने से ही ब्राह्मण कहलाता है । ज्ञान के क्षेत्र में भी सम्यग् ज्ञान प्राप्त करनेवाला ज्ञानी ही मुनि कहलाने योग्य होता है, और बाह्य आभ्यंतर शुद्ध तपश्चर्या करने से ही तपस्वी तापस बन सकता है । अन्यथा नहीं । गुणों के आधार पर परमात्मा ने कितनी अद्भुत - अनोखी व्यवस्था की
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है
समयाए समणो होई, बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥
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गुणों की व्यवस्था का शाश्वत स्वरूप
शाश्वत ..
आचार्य-उपाध्याय एवं साधु इन तीन पदों की गुणों के आधार पर .. व्यवस्था है । भूत - वर्तमान और भविष्य तीनों कालो में सदाकाल यही तीन व्यवस्था हैं । इनके इसी तरह ३६, २५, और २७ गुण हैं । यहाँ नाम-जाति-संप्रदाय आदि की कोई व्यवस्था ही नहीं है । किसी को कोई महत्त्व नहीं दिया गया है। यह एक मात्र गुण आधारित व्यवस्था है । पंच परमेष्ठि के १०८ गुणों में अरिहंत के १२ तथा + सिद्ध के ८ मिलाकर देव तत्त्व के २० ही गुण है। जबकि आचार्य के ३६ + उपाध्याय के २५ + तथा साधु
२७ कुल मिलाकर गुरु तत्त्व के ८८ गुण होते हैं । इस तरह देव तत्त्व के - २० और गुरु तत्त्व के - ८८ गुण मिलाकर १०८ कुल होते हैं । इन पंचपरमेष्ठी के १०८ गुणों के
आध्यात्मिक विकास यात्रा