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________________ चतुर्विध संघ की व्यवस्थापना की है । अतः केन्द्रीभूत आधार तीर्थंकरों का ही है । साधु साध्वी - श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना रूप तीर्थस्थापना तीर्थंकर परमात्मा ने ही की है । तीर्थंकर शब्द की व्युत्पत्ति भी इसी अर्थ - भाव को स्पष्ट एवं पुष्ट करती है— तीर्थं करोति इति तीर्थंकर । जो तीर्थ बनाते हैं बे तीर्थंकर । तीर्थंकर बनने के बाद कोई भी तीर्थंकर सर्वज्ञ भगवान जाति व्यवस्था या संप्रदाय स्थापना नहीं करते हैं । वे मात्र धर्मतीर्थ की ही स्थापना करते हैं । किन्तु हिन्दु धर्म में मनुस्मृति ग्रंथ में जाति व्यवस्था करने का काम भगवान को सोंपा गया है । १ ब्राह्मण, २ शूद्र, ३ क्षत्रिय और ४ वैश्य इस प्रकार चार वर्णों की व्यवस्था स्थापना भगवान ने की ऐसा वर्णन मनुस्मृति में है । सच देखा जाय तो ऐसी स्थापना करने की कोई बात ही सत्य नहीं लगती है। कर्म के संसार में जो जीव जैसी पाप कर्म की प्रवृत्ति करता है उसको उसीके किये हुए पापकर्मों के उदय में वैसा फल मिलता है। पाप के फल रूप उस जीव को वैसी जाति-कुल- गोत्रादि प्राप्त होते हैं । किये हुए कर्म ही एक मात्र कारण है । ये शब्द भगवान महावीर प्रभु ने अपनी देशना में स्पष्ट कहे हैं। जो उत्तराध्ययन शास्त्र में संग्रहित है वे इस प्रकार है एगया खत्तिओ होई, तओ चंडाल बुक्कसो। तओ कीड पयंगो अ, तओ कुंथु पिवीलिआ ॥ उत्तरा ३/४ चार गति और पाँच जाति के इस ८४ लक्ष जीव योनियों के संसार में परिभ्रमण करते हुए जन्म-मरण धारण करते हुए कभी जीव क्षत्रिय बनता है तो कभी जीव चंडाल बनता है । और किये हुए कर्मानुसार कभी कीट-पतंग - तथा कभी कुंथुआ नामक छोटे से जन्तु तथा चींटी आदि भी बनता है । इस प्रकार कृत कर्मानुसार जन्म-मरण धारण करता ही रहता है । 1 कम्मुणा बंभणो हो, कम्मुणा होइ खत्तिओ । कम्पुणा वइसो होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ उत्तरा २५ / ३३ 1 1 किये हुए कर्मानुसार कोई जीव ब्राह्मण बनता है । कृत कर्मानुसार ही कोई क्षत्रिय होता है, कोई वैश्य और कोई शूद्र भी बनता है । तो अखिर किये हुए कर्मानुसार ही बनता है । कई बार जातिभेद करके जीव हल्की जाति में जाकर जन्म लेते हैं। अपने कुल का अभिमान करनेवाले कई जीव जन्मान्तर में शूद्ररूप से चण्डाल, हरिजन, भंगी, आदि कुल गोत्र में जन्म लेते हैं । यह तो अपने अपने किये हुए कर्मानुसार फल रूप है। इसलिए साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन ७३३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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