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पारि
२२) मनोयोग शुद्धि धारक २३) वचन योग शुद्धिधारक २४) काय योग शुद्धि धारक २५) मरणान्त उपसर्गसहिष्णु २६) संलीनता गुणधारक २७) निर्दोष संयमयोग युक्त दूसरी तरह से २७ गुणों की व्यवस्था१) प्राणातिपातविरमण २) मृषावादविरत ३) अदत्तादानविरत __ महाव्रती ४) मैथुनसर्वथाविरत ५) परिग्रहत्यागी ६) रात्रिभोजनत्यागी ७) पृथ्वीकायरक्षक ८) अप्कायरक्षक ९) तेउकायरक्षक १०) वायुकायरक्षक ११) वनस्पतिकायरक्षक १२) त्रसकायरक्षक १३) एकेन्द्रियसर्वजीवरक्षक १४) द्विन्द्रियसर्वजीवरक्षक १५) तेइन्द्रियसर्वजीवरक्षक १६) चतुरिन्द्रियसर्वजीवरक्षक १७) पंचेन्द्रियसर्वजीवरक्षक १८) लोभादिकषायनिग्रही १९) क्षमाशील २०) शुभभावनाभावुक २१) मनोगुप्तिधारक २२) प्रतिलेखनादि शुद्ध २३) संयमयोगयुक्त २४) वचनगुप्तिधारक
क्रियाकारक २५) शीतादि २२ परिषह २६) मरणान्तउपसर्गसहिष्णु २७) कायगुप्तिधारक
सहिष्णु
इस तरह दूसरे तरीके से भी २७ गुण हुए ! उपरोक्त दोनों सत्ताईसियों को देखने पर थोडे से गुणों का अन्तर आता है, परन्तु सत्ताइसी का प्रकार थोडा बदल जाता है। गुणाश्रित स्वरूप- गुरू पद पर बिराजमान आचार्य, उपाध्याय एवं साधु महाराज इन तीनों में गुणों की ही प्राधान्यता है । अतः गुणों के एक मात्र आधार पर आश्रित ही तीनों का जीवन है।
आश्रित है । व्यक्ति आश्रित या द्रव्याधार या नामाश्रित कोई महत्त्व नहीं है । वैसी प्राधान्यता मिलने पर गुण स्वरूप गौण हो जाता है, और आगे का सारा महत्त्व कमजोर हो जाता है। अतः एक मात्र गुणों की प्राधान्यतावाला जीवन ही सुंदर है। __ऐसे ऐसे गुणों का होना आवश्यक है । ऐसे और इतने गुण होने चाहिए तो ही आचार्य कहलाएंगे। या फिर तो ही उपाध्याय कहलाएंगे, या तो ही वे साधु कहलाएंगे। उस उस पद पर पहुँचने के लिए ये ये गुण होने चाहिए। ऐस ऐसे गुण होने चाहिए यह कौन निर्णय करता है? किसने ये नियम बनाए ? इत्यादि विचारणा के उत्तर में स्पष्ट है कि तीर्थंकर सर्वज्ञ भगवंतों ने ही शासन की स्थापना की है । उन्होंने ही धर्म की, तीर्थ की,
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आध्यात्मिक विकास यात्रा