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रास्ते से पथभ्रष्ट है और दूसरों को भी मोक्षमार्ग से भ्रष्ट कर देंगे। भटका देंगे। एक माता या पिता अपने संतान का जितना ज्यादा नुकसान नहीं कर पाएँगे उससे हजार गुना ज्यादा नुकसान एक गुरु करेंगे। माता-पिता संतान के परम हितैषी होते हैं। लेकिन माता की दृष्टि संतान के शरीर तक केन्द्रित रहती है । शारीरिक विकास तक ही माता का लक्ष्य रहता है । पिता बौद्धिक विकास तक सीमित रहता है । परन्तु उस संतान की आत्मा के आध्यात्मिक विकास के लिए कौन जिम्मेदार है ? अतः चार प्रकार के गुरुओं की व्यवस्था अन्त में अन्तिम धर्मगुरु ही आध्यात्मिक विकास करते हैं ।
चार प्रकार के गुरु
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१. माता गुरु, २. पिता गुरु, ३. विद्यागुरु, और अन्तिम चौथे ४. धर्मगुरु है । इस तरह चार प्रकार के गुरुओं की व्यवस्था दृष्टिगोचर है । पुत्र को जन्म दे चुकने के बाद .. माता जब संस्कार देने का काम करती है संतान को अच्छे-ऊँचे संस्कारों से संस्कारित करती है तब माता भी एक गुरु के स्थान पर बैठती है । बाल्यकाल में बालक छोटा होता है तब तक माता की जिम्मेदारी ज्यादा होती है । वहाँ तक माता का लक्ष्य संतान के शरीर तक सीमित रहता है । लेकिन जैसे जैसे बडा होता जाता है उसका बौद्धिक विकास, विलास करने की जिम्मेदारी भी उसके पिता की बढती जाती है। पिता का भी योगदान काफी ऊँचा रहता है । इस दृष्टि से पिता दूसरे क्रम पर गुरु बनते हैं ।
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पुत्र को जब पाठशाला में भेजा जाता है तब शिक्षक भी उसे विद्या - शिक्षा देकर सुशिक्षित करते हैं । अतः वे विद्यागुरु कहलाते हैं । विद्यादाता विद्यागुरु में भी दो प्रकार के होते हैं । एक तो व्यवहारिक शिक्षा - स्कूल-कॉलेज की देनेवाले, और दूसरे धार्मिक शिक्षा देनेवाले हैं । वे भी विद्यागुरु हैं । अन्त में उस जीव की आत्मा के उत्थान - कल्याण करनेवाले चौथे धर्मगुरु कहलाते हैं । ऐसे धर्मगुरु का स्थान अत्यन्त ऊँचा है। सही कल्याण तो वे ही करेंगें ।
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धर्मगुरुओं में भी सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी दोनों ही कक्षा के होते हैं। जो स्वयं ही मोक्षमार्ग के पथ से भ्रष्ट है और अपना ही आध्यात्मिक विकास नहीं कर पाए हैं वे मिथ्यात्वी हैं | आचार-विचार के ऊँचे आदर्श को वे अभी तक जो छू भी नहीं पाए हैं, त्याग की ऊँची कक्षा पर अभी तक जो चढ ही नहीं पाए हैं, ज्ञान और ध्यान की सही सच्ची दिशा ही जो अभी तक समझ ही नहीं पाए हैं, आत्मा-परमात्मा - कर्म - धर्म और मोक्ष तक का स्वरूप भी अभी तक जो स्वयं ही समझ नहीं पाए हैं वे क्या दूसरों को समझाएँगे ?
आध्यात्मिक विकास यात्रा
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