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नौं पदों को गोलाकार-चक्राकार स्वरूप में स्थापित करके सिद्धचक्र नामकरण दिया गया है । इस नवपदरूप सिद्धचक्र में अरिहंत भगवान को केन्द्र की कर्णिका में बिराजमान किये हैं। उनके ठीक ऊपर दूसरे सिद्ध पद की स्थापना है । ये दोनों देव तत्त्व हैं । इसके बाद
गुरु तत्त्व का क्रम है । इसमें तीसरे आचार्य पद की व्यवस्था बाई तरफ की पंखडी में है। नीचे की दिशा की पंखुडी में उपाध्याय चौथे पद की व्यवस्था की गई है। उसके पश्चात् पाँचवे साधु पद की व्यवस्था अरिहंत के दांई तरफ की पंखुडी पर की गई है। यहाँ तक दो देव और तीन गुरु मिलाकर पंच परमेष्ठी की स्थापना की गई है। आगे के चार पदों में चार धर्मों की स्थापना क्रमशः है । छ8-दर्शन, ७ वें ज्ञान, ८ वें चारित्र, ९ वें तप पद की स्थापना है । इस तरह नौं पद रूप सिद्धचक्र का स्वरूप है । इनमें तीन गुरुओं का स्थान .
है।
गुरु की गरिमा- गुरु शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि
'गु'शब्दस्त्वन्धकारः रुशब्दस्तन्निरोधकः। .
एतदुक्तं समासेन, गुरुशब्दयोरर्थः ।। गुरु शब्द में 'गु' अक्षर अन्धकारवाची है। और 'रु' अक्षर अन्धकार को रोकने अर्थ में निरोध करने अर्थ में है। इस तरह संक्षिप्त रूप से गुरु शब्द का अर्थ है कि.. अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर करके ज्ञान रूपी प्रकाश को फैलाना। किसी को भी सम्यक् ज्ञान देना । इसी को प्रसिद्ध श्लोक में और स्पष्ट किया है
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया।
नेत्रमुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः॥ अज्ञानरूपी तिमिर = अन्धकार से अन्धे जो जीव हैं उनकी ज्ञानरूपी अञ्जन की शलाका (सली) से अन्ध की आँखों में लगाकर ज्ञान रूपी नेत्रों का उद्घाटन-उन्मीलन करनेवाले ऐसे जो गुरु होते हैं उनको नमस्कार किया गया है । अर्थात् अज्ञान को हटाकर सच्चे सम्यग् ज्ञान के चक्षु जो खोलनेवाले हैं ऐसे गुरु को नमस्कार किया गया है । गुरु का कार्य ही यह है कि जीवों को सम्यग् ज्ञान देकर सम्यग् सच्चे मार्ग पर लाना । उसे मोक्ष के मार्ग पर आगे बढाना।
लेकिन दूसरे जीवों को सम्यग् ज्ञानादि देने के पहले वे स्वयं उस ज्ञान को पाए हुए होने चाहिए। स्वयं पहले मोक्षमार्ग पर होने ही चाहिए। तो ही दूसरों का कल्याण कर सकेंगे। अन्यथा “स्वयं नष्टा परान्नाशयति" जैसी स्थिति होगी। स्वयं गुरु भी मोक्षमार्ग
साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन
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