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है । सामायिक यह चारित्र-दीक्षा का ही संक्षिप्त-लघु स्वरूप है । गृहस्थाश्रमी जीवन में उद्यमशील गृहस्थ सैंकडों कार्यों में-प्रपंच में व्यस्त होने के कारण सतत दिनभर १८ पापों की प्रवृत्ति में रहता है अतः उसे अपने पापों का छेदन करने के लिए..प्रतिदिन सामायिकादि अवश्य करनी ही चाहिए। तो ही पापनिवृत्ति संभव है। इस तरह पाँचवे गुणस्थानवर्ती श्रावक को भी छठे गुणस्थानक के साधु धर्म का आस्वाद चखना चाहिए। रसास्वाद से अनुभूति होती है । इसलिए श्रावक साधु के आचारों का पालन करने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए । परन्तु साधु को श्रावकाचार पालने की आवश्यकता नहीं रहती है । क्योंकि साधु का आचार श्रावक के आचार से हजार गुना ज्यादा ऊँचा श्रेष्ठ कक्षा का है । इसलिए साधु यदि श्रावकाचार पालने का विचार करे तो उसे एक गुणस्थान नीचे उतरना पडता है। इसमें साधु को नुकसान है । जबकि श्रावक यदि साधु के आचारों का पालन करे उसे एक गुणस्थान ऊपर चढने का मौका मिलता है । अत्यंत लाभ होता है । आगे विकास होता है । इसलिए श्रावक साधना के क्षेत्र में साधु को अपना गुरु मानता है । मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग-धर्म पर चढने पर के लिए... अग्रसर होने के लिए, आगे बढ़ने के लिए, आध्यात्मिक विकास के लिए श्रावक साधु को अपना गुरु मानता है। मार्गदर्शक-उपदेशक मानता है। इसीलिए गुरु के आगे धर्म का विशेषण जोडकर "धर्मगुरु” नाम दिया गया है । ऐसे धर्मगुरु का कर्तव्य है कि स्वयं मोक्ष की तरफ प्रयाण करते हुए आगे बढ़ते ही जाय; ऊपर उठते जाय । मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़ते हुए श्रावक को भी आगे बढ़ाते ही जाय । साथ लेकर आगे बढे, और आगे बढाए।
गुरु पद की व्यवस्था
तत्त्वत्रयी रूप देव-गुरु-धर्म इन तीन तत्त्वों की व्यवस्था में देव तत्त्व में अरिहंत और सिद्ध इन दो भगवानों का स्थान है। इसी तरह दूसरे गुरु तत्त्व में आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन की व्यवस्था की गई है । और धर्म तत्त्व में-दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तथा तप इन चार धर्मों की व्यवस्था की गई है। इस तरह से दो देव + तीन गुरु + और चार धर्म मिलाकर नवपद (नौं पदों) की व्यवस्था बैठाई गई है । इन
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आध्यात्मिक विकास यात्रा