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संन्यासी-बाबा-फकीरादि के जीवन के स्वरूप को देखकर जैन साधु का भी जीवन देखकर अच्छी तरह अभ्यास करके तुलना कर सकते हैं। श्रावक भी साधुतुल्य बन सकता है
सामाइअ-वय-जुत्तो, जाव मणे, होइ नियम-संजुत्तो। छिन्नइ असुहं कम्मं, सामाइअ जत्तिआ वारा
॥१॥ सामाइअम्मि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा। . .
एएण कारणेणं, बहुसो सामाइअंकुज्जा - श्रावक सामायिक करके पूरी होने पर पारने के समय उपरोक्त सूत्र बोलता है। इसी सूत्र से सामायिक पारी जाती है । इस सूत्र में एक सामायिक का आचरण करनेवाला श्रावक कितना लाभ प्राप्त करता है ? और किस कक्षा में पहुँचता है ? इसका सुन्दर विवरण दिया है। कहते हैं कि... सामायिक व्रत से युक्त ऐसा व्रती श्रावक जब तक मन में इस सामायिक के नियम-व्रत से युक्त होता है अर्थात् जब तक सामायिक में है तब तक अशुभ पाप-कर्मों का छेद करता है । नाश करता है । जितनी बार सामायिक करता है, सामायिक में रहता है, उतनी बार अशुभ पाप कर्मों का छेदन करने का अर्थात् निर्जरा का लाभ प्राप्त करता है । और सामायिक करनेवाला व्रती श्रावक जब तक सामायिक में रहता है तब तक साधु तुल्य-साधु के समकक्ष कहलाता है । साधु जैसा ही कहलाता है। . .
वैसे सामायिक चारित्राचार का धर्म है । यह चारित्रधर्म साधु जीवन का धर्म है। साधु पूर्ण चारित्रपालक है । इसलिए साधु की सामायिक-दीक्षा आजीवन भर-मृत्यु की अन्तिम श्वास तक है। जबकि गृहस्थाश्रम में रहनेवाले श्रावक की सामायिक दो घडी = ४८ मिनिट के समय की अल्पकालीन है। अतः “जावनियम" की प्रतिज्ञा है। आखिर घरबारी-गृहस्थी है अतः अल्पकाल = दो घडी की भी सामायिक करे तो साधु के समकक्ष अवस्था प्राप्त होती है श्रावक को । साधु जैसे आजीवन स्त्री स्पर्श का त्यागी होता है, धन संपत्ति का त्यागी होता है, कच्चे पानी, अग्नि, वनस्पति आदि का त्यागी होता है, ठीक उसी तरह दो घडी की सामायिक में श्रावक भी स्त्री-पुत्री-पत्नी आदि का स्पर्श भी न करे ऐसा नियम है, धन-संपत्ति का भी स्पर्श न करे, कच्चे पानी, अग्नि, वनस्पति आदि का भी स्पर्श सर्वथा न करना ऐसा नियम है। अतः इन समान आचार की व्यवस्था के पालन से श्रावक भी सामायिकावस्था में साधु तुल्य गिना जाता है । इसी कारण से श्रावक को भी बार-बार सामायिक करनी चाहिए। ऐसा विधान किया जाता है। बात भी सही
साधना का साधक- आदर्श साधुजीवन
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