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________________ क्रियाशील-सक्रिय बनकर कुछ करने की भी बात करें, तो मिथ्यात्व सबसे पहले ना कह देगा। वह अपने स्वार्थ की बात आगे करेगा–अरे यार ! खाओ पीओ मौज करो । छोडो इन सब पुण्य-पापकी बातों को। ये सब निरर्थक-व्यर्थबाते हैं । इस तरह की वृत्ति-ऐसा स्वभाव एवं बोलने की भाषा ऐसा होने के कारण इस प्रकार का मिथ्यात्व आध्यात्मिक विकास के पथ पर अग्रसर होने में बाधक बनता है । जब तक ऐसे अवरोधक को दूर नहीं कर सकेंगे तब तक हमारा विकास प्रारंभ ही नहीं हो सकेगा। अतः सर्वप्रथम पदार्थों का शुद्ध स्वरूप जैसा है वैसा देखें-जानें-पूरी तरह से समझ लें और फिर मानें... तथा अन्त में उसी तरह का आचरण करें । मोक्षार्थी मुमुक्षु के लिए यह नितान्त आवश्यक है। - विकास की दिशा में अग्रसर होने की शुभ शुरुआत ही मिथ्यात्व के नष्ट होने से और सम्यक्त्व के द्वार खुलने से होती है। यदि ये सम्यक्त्व के द्वार न खुले तो निश्चितं समझिए कि हमारी आत्मा के विकास का प्रारंभ हुआ ही नहीं है । अतः इस बाधक तत्त्व को अच्छी तरह पहचान कर... आगे बढ़ने के लिए भगीरथ पुरुषार्थ करना नितान्त. आवश्यक है। जब तक आत्मा-परमात्मा-मोक्षादि तत्त्वों को मानेंगे ही नहीं तब तक हमारी बुद्धि सही-सीधी दिशा में चलेगी ही नहीं, और मिथ्यात्व आत्मादि पदार्थों के अस्तित्व को मानने ही नहीं देता है । वह तो पहले ही बुद्धि दृष्टि दोनों बना देता है कि. .. कुछ है ही नहीं । कुछ मानना ही नहीं। इससे बुद्धि निषेधात्मक हो जाती है। फिर वह उस दिशा में, उन पदार्थों के बारे में सोचेगा ही नहीं। यदि आप सम्यग्दृष्टि हो तो ही आपकी बुद्धि आत्मादि पदार्थों के बारे में सोचोगे-विचारोगे-आपकी बुद्धि विधेयात्मक सकारात्मक बनेगी। ऐसी सकारात्मक बुद्धि-दृष्टि बनने के बाद आत्मादि पदार्थों के बारे में जीव सोचना शुरू करता है। सोचने विचारने की शक्ति बढती है। तत्त्वरुचि जागृत होती है। ऐसी मिथ्यात्व की वृत्ति में जीव का अनन्त काल जैसा कि पहले देख चुके हैं कि पाँच प्रकार के मिथ्यात्वों में से निगोद के एकेन्द्रिय भवों के काल से अज्ञान के कारण अनाभोगिक मिथ्यात्व जीव में रहता है। निगोद की अवस्था में वहीं बार-बार जन्म-मरण करते हुए जीव अनन्तकाल बिता देता है । जहाँ एक श्वासोच्छ्वास परिमित काल में १७१६ भव हो जाते हैं ऐसी निगोद की अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था में जहाँ अनन्त काल जीव बिता देता है वहाँ सम्यक् श्रद्धा होने की कोई संभावना ही नहीं थी । एकेन्द्रिय के पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकायादि भवों में भी तथा २, ३, ४, सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण ४३९
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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