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________________ समक्ष रखकर वैसा बनने की दिशा में भगीरथ पुरुषार्थ करना चाहिए। तभी हम वैसे निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने में सफल हो सकेंगे । लक्ष्य एवं आदर्श के केन्द्र में गुणों को रखना चाहिए । आदर्शभूत महापुरुष तो आलंबन मात्र है परन्तु हमारा चरम लक्ष्य तो उनके आलंबन से हमारे गुणों का विकास हमें साधना है । साधक को ही साधना करनी है । लेकिन साधना के लिए साधन की आवश्यकता रहती है । तभी साध्य को साधकर साधक भी सिद्ध बन सकता है 1 1 विकास में बाधक - मिथ्यात्व साधक जब साध्य की प्राप्ति के लिए साधनों की सहायता लेकर साधना करता हुआ आगे बढता है तब कुछ तत्त्व कभी अवरोधक बनते हैं, और कुछ तत्त्व कभी सहायक बनते हैं । विकास की प्रत्येक दिशा में, प्रत्येक मार्ग में बाधक तत्त्व भी काफी आते हैं जो मार्ग में रोडे डालते हैं, और विकास की गति को तोड देते हैं। ऐसी परिस्थिति में या तो गति धीमी हो जाती है या फिर गति सर्वथा तूट जाती है। कोई विरल मनोबल वाला ही वैसी हिम्मत जुटाकर गति को पुनः जोड पाता है, और प्रगति साधता है । यदि आप आध्यात्मिक विकास की दिशा में प्रगति करना चाहते हैं तो ... सबसे पहले गति में अवरोधक बनकर रोडे डालनेवाले बाधक तत्त्व को पहचान लो वह है “मिथ्यात्व” । जैसे हाइवे पर आप तीव्र गति में भाग रहे हो उस समय गतिरोधक - रोडे रास्ते में लगे रहते हैं जो आपकी गति को रोक देते हैं। ठीक उसी तरह मोक्षमार्ग पर प्रयाण करनेवाले साधक के मार्ग में मिथ्यात्व एक ऐसा अवरोधक-बाधक तत्त्व है जो हमारे विकास की गति - प्रगति को रोक देता है । आगे बढने ही नहीं देता है । 1 1 1 मिथ्यात्व हमारी विकास की दिशा के लक्ष्य से ठीक विपरीत हमें ले जाता है विकास की दिशा एवं लक्ष्य ऊपर है और मिथ्यात्व ठीक उससे उल्टी अधो दिशा में पाताल में ले जाता है। क्योंकि यह विपरीत वृत्तिवाला है। मिथ्यात्व नास्तिक विचारधारावाला है । प्रत्येक तत्त्व की जो भी बात सामने आए मिथ्यात्वी की वृत्ति निषेधात्मक होने के कारण वह सबसे पहले ना ही कहेगा। चाहे आत्मा की बात हो या परमात्मा की बात हो, या चाहे मोक्ष का विषय हो ... या फिर स्वर्ग-नरक का विषय हो, या भले ही पुण्य-पाप की प्रवृत्ति का काम हो मिथ्यात्वी सबसे पहले सब में 'ना' ही कहेगा । आत्मा को पाप कर्म से सर्वथा मुक्त करने के लिए चलो, हम कुछ करें, ४३८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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