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________________ के मानव की पदं–प्रतिष्ठा यश-कीर्ति कभी भी फैल ही नहीं सकती है। अतः इनकी मूलभूत आवश्यकता है । ये गुण हैं जो व्यक्ति को गुणवान बनाते हैं । अतः संसार में स्पष्ट कहा जाता है कि आप कौन है इसका ज्यादा महत्व नहीं है, परन्तु आप कैसे है इसीका महत्व अनेक गुना ज्यादा है । आप कौन है ? इससे मात्र व्यक्ति के पद-प्रतिष्ठा-स्थानादि का ही बोध होता है जबकि कैसे हैं ? यह शब्द आपकी गुणवत्ता को ध्वनित करता है। अतःविकास मात्र सांसारिक नहीं होना चाहिए, आध्यात्मिक विकास की परम आवश्यकता सांसारिक विकास मात्र बाह्य विकास है, जबकि आध्यात्मिक विकास आन्तरिक है, यही आत्मा का विकास है । आत्मा के गुणों के विकास का ही अपर नाम है आध्यात्मिक विकास । क्योंकि आत्मा गुणी द्रव्य है और क्षमा-समतादि उसके गुण हैं । गुण-गुणी का अभेद संबन्ध है । अतः अभेद उपचार से आत्मा के आध्यात्मिक विकास का ही अपर नाम गुणविकासदे सकते हैं और गुणात्मक विकास काही अपर नाम आध्यात्मिक विकास दे सकते हैं। दोनों परस्पर अपरनाम-पर्यायवाची नाम कहे जाते हैं। निर्धारित लक्ष्य की दिशा में विकास _ विकास कैसा होना चाहिए? लक्ष्य विहीन या लक्ष्य सहित? विकास पहले होता है कि लक्ष्य का निर्धार पहले ? यदि आप लक्ष्यविहीन ही हैं तो दिशाभ्रान्त हैं । गुमराह हैं आपके सामने कोई लक्ष्य ही नहीं हैं, यदि किसी साध्य को स्थिर ही नहीं किया है तो आप किस दिशा में प्रयाण करेंगे? मनोविज्ञान के मानसशास्त्र का नियम है कि आप सर्वप्रथम लक्ष्य का निर्धार करें । यदि लक्ष्य ऊँचा, श्रेष्ठ कक्षा का है तो आपका विकास उसी दिशा में होगा। अन्यथा लक्ष्य गलत होने पर विकास के बदले विनाश भी हो सकता है। आप उन्नति के शिखर पर पहुँचने के बजाय अवनति के पाताल में भी पहुँच सकते हैं । अतः लक्ष्य पर बहुत बडा आधार है । अनिवार्य है। .. “लक्ष्य पर आधार" की अनिवार्यता साधक यदि समझ जाएगा तो विकास में विलम्ब नहीं होगा। और विकास सही होगा। अतःसाधक के विकास का आधार लक्ष्य पर है और लक्ष्य का आधार पूर्व में विकास साधे हुए वैसे महापुरुष पर है । विकास की चरम सीमा जो साध चुके हैं ऐसे महापुरुष हमारे लक्ष्य के केन्द्र में होने चाहिए । अतः ऐसे महापुरुष की प्राप्ति की शोध में रहना चाहिए। यही ऊँचा आदर्श हमें रखना चाहिए। शास्त्रों में से ऐसे आदर्शभूत महापुरुषों के चरित्र हमें ढूँढ लेने चाहिए । इन्हीं को सदा दृष्टि सम्यक्त्व गुणस्थान पर आरोहण ৪৩
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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