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________________ नश्-नाश् धातु के साथ “प्र" उपसर्गवाची अक्षर व्याकरण के नियमानुसार लगा है। “प्र” उपसर्ग-प्रकृष्ट-उत्कृष्ट अर्थ में प्रयुक्त है । यह नाश क्षय करने क्रिया की उच्चता गुणवत्ता को प्रकट करता है। जैसे चंड के आगे “प्र" उपसर्ग लगाकर प्रकृष्ट अर्थ में “प्रचण्ड” शब्द बनाया गया है। चण्ड शब्द तीव्रता के अर्थ को जीतना द्योतित करता है उससे कई गना अधिक तीव्रता के अर्थ को प्रचण्ड शब्द द्योतित करता है। इसी तरह यहाँ पर नाश के आगे “प्र” उपसर्ग इसी अर्थ में है । प्रनाशन अर्थात् प्रकृष्ट नाश करना है। नाश करते समय थोडा सा अंशमात्र भी रह न जाय ऐसा नाश करना प्रनाश है । जितने भी पाप कर्मादि है उन सब का समूल सर्वांशिक नाश करने की प्रक्रिया को प्रनाश कहा है । इस अर्थ में पणासणो शब्द प्रयुक्त है । इस तरह सव्व शब्द और पणासणो शब्द दोनों मिलकर अशुभ पाप-कर्मों का सर्वथा सर्वांश में समूल नाश करने की प्रक्रिया को लक्षित करते हैं। ___ आत्मप्रदेशों पर से सभी कर्मों की कार्मण वर्गणा का नाश-क्षय करने की प्रक्रिया को शास्त्रकार भगवंतों निर्जरा कहा है। निर्जरा वियोगकारक है। अलग करनेवाली है। जो कार्मण वर्गणा आत्म प्रदेशों पर लगी हुई है, उन सबका नाश करना, क्षय करना अर्थात् आत्मा से अलग करना, दूर करना, वियोग करना इसे निर्जरा कहते हैं। ऐसी निर्जरा मोक्षसाधक धर्म है । जितने-जितने प्रमाण में कर्मों का क्षय-निर्जरा होती है उतने प्रमाण में आत्मा मोक्ष के नजदीक-समीप पहुँचती है । यही सही प्रक्रिया है । सही साधना है। पहले “नमो अरिहंताणं” पद में अर्थ की जो ध्वनि निकलती हैं, वही और वैसे ही समान अर्थ की ध्वनि “सव्वपावप्पणासणो" के सातवें पद में भी निकलती है । दोनों ही पद समान अर्थ प्रतिपादित करते हैं । अतः दोनों पदों का अर्थ साधक के लिए साध्य बन जाता है । वही साधनारूप धर्म बन जाता है । और उसके अंग साधन बन जाते हैं। इस तरह साध्य-लक्ष्य को धोतित करनेवाले इन दोनों पदों के अर्थ को-मर्म को- रहस्यार्थ को समझकर प्रत्येक साधक को सही अर्थ में नवकार महामन्त्र की उपासना करनी चाहिए। नवकार महामन्त्र के प्रत्येक उपासकों - आराधकों को अपने संकल्प में यह साध्य स्थिर-निश्चल करना चाहिए। तभी साधना फलवती-फलदायी बनकर साध्य को सिद्ध कर सके। 'पणासणो' के लिए धर्म- 'नमो' इसी नवकार मन्त्र में सर्व प्रथम प्रयुक्त ‘नमो' शब्द धर्मरूप है। नमस्कार के आचरणरूप धर्म की महत्ता इस महामन्त्र में देकर मन्त्र की महानता सिद्ध की है। साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन ७११
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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