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प्रवृत्ति करनेरूप विधि-निषेधरूप उभयस्वरूपात्मक धर्म है । पाप प्रवृत्ति के त्याग को ही आश्रव के निरोधरूप संवर धर्म कहा है। इस सिद्धांत के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि साधु का जीवन संसार के किसी भी प्रकार के पापों की प्रवृत्तिवाला सर्वथा न हो । संपूर्णरूप से उन पाप कर्मों की निवृत्तिरूप होना चाहिए। इस तरह एक ही सिक्के की दो बाजु की तरह साधु का जीवन भी प्रवृत्ति - निवृत्तिरूप उभयधर्मात्मक बताया है । मोक्षप्राप्ति के अनुरूप धर्म
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संसार में अनेक प्रकार के लक्ष्य हैं- साध्य हैं। उन उन साध्यों की प्राप्ति के अनुरूप - अनुकूल साधना को सभी ने धर्म कहा है । अतः साधना का जितना ज्यादा महत्व नहीं है, उससे अनेक गुना ज्यादा महत्व साध्य का है । अतः साध्य के निश्चितिकरण पर पूरा आधार है। मीमांसकों ने स्वर्ग का साध्य ज्यादा रखा है। इसलिए स्वर्ग प्राप्ति के अनुरूप यज्ञ-याग - होम-हवन की साधना को कर्मकाण्ड कहा है। उसे अनिवार्य माना है । इस तरह स्वर्ग के साध्यवाले अनेक मिलेंगे । सुख के साध्यवाले पुण्योपार्जन करने की साधना को धर्म कहेंगे । सुख में भी इहलौकिक, लोकोत्तर आदि अनेक प्रकार हैं । सांसारिक सुखों की उपलब्धि का साध्य भी अनेकों का है अतः उन्होंने उनकी रचना भी तदनुरूप बनाई है । कईयों ने विघ्नक्षय, निर्विघ्नता का लक्ष्य रखकर उसके अनुरूप साधना को व्यवहार में लाया । कइयों ने रोग निवृत्तिरूप आरोग्य - स्वास्थ्य प्राप्ति का लक्ष्य बनाकर तदनुरूप साधना की व्यवस्था की । कइयों ने दुःख निवृत्ति को साध्य बनाकर उसके अनुरूप साधना बनाई । इस तरह सबके अलग अलग साध्य रहे और उसके अनुरूप साधना की व्यवस्था बैठाई ।
लेकिन जैन शासन में सिद्धत्व - मोक्ष की प्राप्ति को ही एक मात्र अन्तिम साध्य कहा है । इसके सिवाय दूसरे साध्य का ही निषेध है। हाँ, यदि चरम साध्य को न साध सके तो वह बीच में किसी भी शुद्ध अवस्था को प्राप्त कर सकता है । यह चरम साध्य मोक्ष की प्राप्ति का जो है उसे ही नवकार जैसे महामन्त्र में स्पष्ट दे दिया, ताकि प्रत्येक साधक जो भी नवकार महामन्त्र की साधना करे उनका लक्ष्य साफ-स्पष्ट बना रहे। इस लक्ष्य - साध्य का वाचक नमस्कार महामन्त्र के पहले एवं सातवे पद में इस साध्य के अनुरूप साधना की प्रक्रिया दी है। दूसरे पद को साध्य बताया है । जब साध्य बताएँगे तो साधना भी तदनुरूप बतानी ही चाहिए। वही बताई है। वैसी ही बताई है ।
साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन
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