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________________ संवर में कर्मों के आगमन को रोकने की प्रक्रिया है । आगमन जा आश्रव स्वरूप है, जिससे आत्मप्रदेशों पर सतत कर्म रज के पुद्गल परमाणु आते ही रहते हैं । इस आश्रवके निरोधरूप संवर धर्म की प्रधानतावाला श्रमणजीवन है । इसलिए मुख्यरूप से साधु का जीवन के आचार-विचार सबको लक्ष में रखकर बनाए गए हैं । अतः साधु का जीवन ही ऐसा बना दिया गया है कि पाप के आश्रव को अवकाश ही नहीं मिल सकता है । पाप की एक भी प्रवृत्ति साधु के लिए नहीं है। यह लक्ष ही साध्य है। इस संवर के सिद्धांत पर बने हुए सभी आचार-विचार साधु को पाप से बचानेवाले हैं, और साधना करानेवाले हैं। ऐसी सुन्दर व्यवस्था का सारा श्रेय तीर्थंकर परमात्मा को है । वे स्वयं सर्वज्ञ वीतरागी थे तो वैसी सुन्दर व्यवस्था कर सके । अन्यत्र सर्वत्र इस दोनों का अभाव साफ दिखाई देता है। __संवर आचार में, व्यवहार में, और साध्यरूप परिणाम-फल में निर्जरा का लक्ष्य है। अर्थात् जीवन जीते हुए नए पाप एक भी नहीं करना और दूसरी तरफ जन्म-जन्मान्तर-भूतकाल के जितने भी पाप कर्म लगे हुए हैं उनको सर्वथा क्षय करना ऐसा जीवन जिसको मिले वह साधु । इसीलिए साधु का जीवन सर्वश्रेष्ठ है । और मोक्ष के अनुरूप-अनुकूल है। संवर क्या है? आश्रव के निरोधरूप है । आश्रव में पाप कर्मों का आगमन है। सतत होना है। जबकि संवर में उनका निषेध है । निरोध है । इसलिए साधु का जीवन एक तरफ आश्रव के निरोधरूप अर्थात् पापकर्म के सर्वथा निषेधरूप है । और दूसरी तरफ निर्जरा की प्रवृत्तिरूप है। प्रवृत्ति-निवृत्ति प्रधान धर्म या विधि-निषेधरूप धर्म प्रवृत्ति विधेयात्मक होती है । जिसमें कुछ करना रहता है । निवृत्ति निषेधात्मक होती है। जिसमें करने का त्याग होता है । अतः साधु का जीवन इन दोनों की मिश्रण अवस्था का है। अब किसकी प्रवृत्ति करना और किसकी निवृत्ति करना? यही मुख्य विषय है। इसमें स्पष्ट है कि पाप की निवृत्ति करना है । पाप कर्मों का सर्वथा निषेध करना है। और कर्मक्षयरूप निर्जरा के अनुरूप संवर धर्म का करना यह प्रवृत्ति स्वरूप है। धर्म हमेशा ही विधि-निषेध उभयात्मक होता है। विधि में करने योग्य विधेय धर्म किया जाता है। जबकि ठीक इससे विपरीत निषेध में न करने योग्य पापों का सर्वथा त्याग रहता है । अर्थात् पाप प्रवृत्ति का सर्वथा त्याग, तथा आध्यात्मिक गुणों का विकास करने की शुभ प्रवृत्ति, या आत्मिक गुणों पर लगे हुए आवरणरूप कर्मों का क्षय करके गुणों का विकास करने की ७०८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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