SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमाणु स्वरूप में ही पडे थे। वैसे पडे हुए जड परमाणु आत्मा का कुछ भी नहीं बिगाड सकते हैं। वे स्वयं जड हैं। परन्तु आत्मा स्वयं पापादि की प्रवृत्ति करके कर्म उपार्जन करती है । पापादि की प्रवृत्ति के मलीन विचारों में जो राग-द्वेष होते हैं, क्लेश-कषाय होते हैं उनके साथ जैसे आर्त-रौद्रध्यान के अध्यवसाय हो और जैसी कृष्ण-नीलादि लेश्या हो अर्थात् विचारों में शुभाशुभ की तरतमता हो उसके आधार पर आनव हुए कार्मण वर्गणा के उन पुद्गल परमाणुओं को आत्मा स्व-प्रदेशों के साथ एकरसीभाव करती है अर्थात् बंध करती है । इसे कर्मबंध की प्रक्रिया कहते हैं । ऐसे बंध के बाद ही उन कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं को कर्म कहते हैं। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि कर्म की कर्ता आत्मा ही है । आत्मा न हो तो या फिर कुछ करे ही नहीं तो कर्म का अस्तित्व हो ही नहीं सकता है । अतः जहाँ कर्म है वहाँ आत्मा जरूर-अनिवार्यरूप से है ही। कर्मसत्ता के अस्तित्व में कारणभूत अस्तित्व आत्मा का है । आत्मा का अस्तित्व इस तरह भी सिद्ध होता है। ऐसी जीवात्मा अनेक गुणों का समूहात्मक पिण्ड है । कार्मण वर्गणा के पिण्डस्वरूप आत्मा नहीं है । क्योंकि कार्मण वर्गणा के परमाणु तो मात्र बाहर से आए हुए हैं, और अल्प कालीन संबंध से रहे हैं। जैसे ही उनका काल समाप्त हुआ कि वे निकल जाएँगे। फिर आत्मा का अस्तित्व तो रहेगा ही । अतः ऐसी आत्मा जो ज्ञानादि स्वगुणों का समूहात्मक पिण्ड स्वरूप है । उसके ज्ञान-दर्शन-चारित्रादि गुणों का विकास करना ही आध्यात्मिक विकास है। ऐसे आध्यात्मिक विकास की भूमिका साधु जीवन में श्रेष्ठ कक्षा की प्रगट होती है । अतः साधु जीवन को आध्यात्मिक साधनाकारी जीवन बताया है । सिद्धिमार्ग के साधक तो साधु हैं। ऐसे साधु अपनी समता-क्षमा नम्रता-सरलतासंतोष-वैराग्यादि अनेक गुणों को विकसित करने की साधना करते रहते हैं, और आध्यात्मिक विकास साधते रहते हैं। इनके विकास में अवरोधक बननेवाले वैसे कर्म के आवरणों को दूर हटाना और उनके बीच से अपनी साधना का मार्ग खुल्ला करना, निष्कंटक बनाते हुए साधना करते करते..आगे बढ़ते बढते साध्य प्राप्ति की सिद्धि प्राप्त करने का लक्ष रहता है। संवरधर्मप्रधान साधुजीवन जीवादि नौं तत्त्वों में संवर-निर्जरा के तत्त्व बताए हैं । ये धर्म प्रधान तत्त्व हैं । धर्म संवर प्रधान होता है और निर्जरा लक्षी होता है । निर्जरा फलरूप परिणाम स्वरूप है। साधना का साधक-आदर्श साधुजीवन ७०७
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy