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________________ जा सकती है । इसलिए आदर्शभूत ऊँचे ऐसे गुणस्थानों की स्पर्शना भाव से नित्य करनी चाहिए। विरतिधर श्रावक के पाँचवे गुणस्थान से यदि थोडी देर के लिए भी श्रावक साधु छट्ठे गुणस्थान का स्पर्श भी करे तो भी वह उतनी देर अप्रमत्त बनता है । क्योंकि श्रावक की कक्षा से साधु हजार गुनी ऊँची कक्षा में है । इसलिए भाव से भी श्रावक उस छट्ठे गुणस्थान की साधु की कक्षा का स्पर्श करे, चिन्तन करे, झंखना - तमन्ना करे तो श्रावक उतने समय ऊँची कक्षा की अप्रमत्तता प्राप्त कर सकता है । अपने देशविरति के व्रतों से महाव्रतों की ऊँची भावना बना सकता है । मोक्षमार्ग I यहाँ मात्र साधु के आचार-विचार से मतलब नहीं है, मुख्य लक्ष्य तो.. का है । मोक्ष की प्राप्ति की दिशा में वह कितना आगे बढता है, यह महत्व का है । इसलिए श्रावक की कक्षा में रहकर भी अप्रमत्त बनने का लाभ मिलता हो तो क्यों नहीं साधुता के भाव बनाना ? अवश्य बनाना चाहिए। भाव चारित्र का भी ऊँचा लाभ मिलता है । इसलिए छट्ठे गुणस्थानवाले साधु को जैसे सातवें गुणस्थान पर जाने से अप्रमत्त कक्षा की प्राप्ति का लाभ मिलता है वैसे ही श्रावक को पाँचवे से छट्ठे पर आने में अप्रमत्तता का लाभ मिलता है। इसलिए श्रावक को हमेशा ही छट्ठे पर पहुँचने का भाव बनाना चाहिए । अप्रमत्तता की कक्षा लाने योग्य पुरुषार्थ करना चाहिए । आध्यात्मिक गुणों का विकास ही सच्ची साधुता है 1 1 यह सारी प्रवचनमाला आध्यात्मिक विकास पर ही है। आत्मा संबंधि विषय के चिन्तन की प्रक्रिया आध्यात्मिक कक्षा है । आध्यात्मिक में सब कुछ आत्मा संबंधी ही है । अब आत्मा में और क्या है ? मात्र गुणों के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है । और उन गुणों को ढककर बैठे हुए कर्म के आवरण है । कर्म भी किस पर है ? सिर्फ गुणों पर । यदि गुण ही मूलभूत नहीं होते तो कर्म किस पर लगते ? आत्मा ही न होती तो कर्म करता ही कौन ? इसलिए आत्मा के कारण कर्मों का अस्तित्व है, परन्तु कर्म के कारण आत्मा का अस्तित्व नहीं है । मुक्त अवस्था में कर्म सत्ता नहीं है तो भी आत्मा का अस्तित्व वहाँ पर पूर्ण रूप से है ही । इसलिए ऐसा नहीं कह सकते हैं कि जहाँ जहाँ आत्मा है वहाँ वहाँ कर्म है ? नहीं। मोक्ष में आत्मा है, परन्तु वहाँ कर्म नहीं है । जहाँ जहाँ कर्म है, वहाँ वहाँ आत्मा अनिवार्यरूप से निश्चित ही है । इसमें संदेह नहीं है । क्योंकि आत्मा के बिना कर्म करे कौन ? जब आत्मा ने कर्म किये ही नहीं थे तब वह मात्र जड कार्मण वर्गणा के रूप में आध्यात्मिक विकास यात्रा ७०६
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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