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________________ यदि मन हलके निमित्त पाकर उन्हीं में मग्न हो गया तो नीचे गिरने में देर नहीं लगेगी। पतन बहुत जल्दी होता है । इसलिए सतत साधुता की प्राप्ति की झंखना रखनेवाला श्रावक ही सच्चा साधक श्रावक कहलाता है। श्रावक के लिए अप्रमत्तभावरूप- छट्ठा गुणस्थान- ' दृष्टि समक्ष आदर्श सदा ही उत्कृष्ट कक्षा का होना चाहिए। तो ही उस उद्देश्य की प्राप्ति तक पुरुषार्थ किया जा सकता है । परन्तु आदर्श यदि ऊँचा न रहे तो निम्नश्रेणि की कक्षा के निमित्त उद्देश्य रह गए तो फिर वैचारिक भूमिका नीचे गिर जाती है । व्यवहार में भी कहा जाता है कि..जैसा संग वैसा रंग । संगत में व्यक्ति खराब रही तो उसके असर का रंग भी हल्की कक्षा का ही लगेगा। इस तरह अच्छे व्यक्ति का भी पतन ही होता है। श्रावक का पाँचवा गुणस्थान चौथे और छठे के बीच है । एक तरफ चौथा और दूसरी तरफ छट्ठा । विकास यात्रा के सोपान ऊपर चढने के क्रम के होते हैं । इसलिए पाँचवे के नीचे चौथा श्रद्धा का गुणस्थान है । इसलिए पाँचवे पर से श्रावक नीचे भी उतरे तो सिर्फ चौथे सम्यग्दर्शन के गुणस्थान तक ही आकर रुके । इससे फिर ज्यादा नीचे उतर जाय तो बडा अनर्थ हो जाय । पहले मिथ्यात्व की कक्षा में पहुँच जाएगा। इसलिए सदा ही आदर्श ऊँचा रखना चाहिए। घडी का लोलक जिस तरह ऊपर की दिशा तरफ थोडा चढता है और क्षणभर में वापिस नीचे आ जाता है। फिर चढने का प्रयत्न करता है, लेकिन वापिस नीचे आ जाता है । ऐसी ही स्थिति प्रमाद की कक्षा में सदा रहती है । श्रावक पाँचवे से नीचे भी उतरे तो चौथे पर आकर रुके । परन्तु श्रद्धा से ज्यादा नीचे पतन तो होना ही नहीं चाहिए। श्रावक मानसिक भूमिका में थोडी अप्रमत्तता लाएं तो एक गुणस्थान आगे भी बढ सकता है । गुणस्थान आध्यात्मिक भावना के बल पर है। परिवर्तन होना-न होना यह मानसिक भावों पर आधारित है। भले ही आचार पालन से श्रावक पाँचवे पर गिना जाय लेकिन अप्रमत्त भाव के ऊँचे आदर्श आ जाय तो छ8 साधु के गुणस्थान पर भी भावों से पहुँच सकता है । इससे श्रावक को बहुत लाभ है । छठे गुणस्थान की मन से भी जितनी बार स्पर्शना हो जाय उतनी बार बडा उत्तम लाभ होता है। कर्मक्षय निर्जरा का तथा अनुमोदना का भी लाभ होता है । आश्रव के निरोधरूप संवरधर्म का लाभ होता है। तदाकार मन बनता है । भाव से उस प्रकार के परिणाम बनते हैं । अतः ऐसी कक्षा में श्रावक भाव से साधु बनता है । भाव की कक्षा कहीं भी बैठे..किसी भी स्थान पर बैठे प्राप्त की साधना का साधक - आदर्श साधुजीवन ७०५
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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